यूं अन्न बर्बाद करो न
यूं अन्न बर्बाद करो न
छोड़ते-फैंकते क्यूं बिखरते, अन्न ऐसे न ये पैदा हुआ
कड़ी मेहनत का फल किसान की, न जिसे दिन-रात का कभी बोध हुआ।।
पार्टी-रस्में और शादियां में, मिलकर एक गठजोड़ हुआ
कौन ज्यादा बर्बाद करेगा, क्यूं इंसान दिखावें का इतना मोहताज हुआ।।
कितनें तरसते अन्न की खातिर, भूखा कितनों को सोना पड़ा
कुछ एक वक्त ही खाना खाते, न कुछ को एक दाना भी नसीब हुआ।।
छोड़ते समय न क्यूं सोचते, अन्न ही जीवन का आधार हुआ
उसके लिए सब जीते-मरते, इंसान घर-परिवार भी अपना छोड़े पड़ा।
तड़पती होगी अन्न की आत्मा, कचरे में जो पड़ा हुआ
पेट भरता जानें किसका आज वो, गंदगी में जो सना खड़ा।
निकट में भूखा बच्चा रोता, पर पेट न उसका भर सका
किया धरा है किसी ओर का, क्यूं दंड प्रभु ने किसी ओर दिया।
व्यथित होता असहाय हो, जो धूल-मिट्टी में पड़ा हुआ
पछता रहा शायद उसकी थाली में जाकर, पेट जिसका भरा हुआ।
पैसों की गर्मी से स्वाद भी खोता, अब स्वादिष्ट न वो रहा
किसी भूखे को मिल जाए तो, भोजन उसके कहां।
सद्बुद्धि खोते क्यूं पढ़े लिखे लोग, अन्न-अन्न में भेद बड़ा
विदेशी खाना मन को भाता, मूंह शुद्ध साधारण खाने से चढ़ा हुआ।
दाने-दाने का मोल है बंधू किस सोच में पड़ा हुआ
अन्न की खातिर मेहनत करते, नसीब न ये अब हर जन हुआ।
हालत देखो जो पड़ोस देश की, समझता नही क्यूं मौन खड़ा
हो जाए न उसके जैसी हालत, नासमझ अब तो होश में आ।