यह कैसा दौर है
यह कैसा दौर है
क्या युग बदल रहा है या फिर हम बदल रहे हैं।
सोचने पर विवश करता है समय, नित्य निरंतर बिना आहट किए
न जाने समय हमें कहां से कहां पर लेकर आ गया।
जब कच्चे घर होते थे तब दिल सभी के पक्के होते थे।
सभी की जुबान की कीमत सभी समझते थे ।
आदर सत्कार करना जानते थे ।
हर किसी के काम में खुद आकर मदद करते ,
लेकिन समय किस रफ्तार से आगे बढ़ा
और हमें हर संबंधों से दूर करता चला गया।
छोटे परिवार, घर की जगह फ्लैट ने ले ली अब जमाना कहां ,
जब एक दूसरे से मिलने के लिए मन लालायित रहता था और
आंखों से देखे बिना चैन भी नहीं आता था ।
समय के साथ-साथ बदलाव आया
सभी की जिंदगी में मोबाइल का महत्त्व बढ़ गया और रिश्ते बौने होने लगे ।
दुनिया में सभी ने अपनी हंसी पर ताला लगा दिया और खो गए अपनी दुनिया में
जहां पर मस्ती भी है और एकांत भी ।
क्योंकि वह किसी को भी अपनी दुनिया में दस्तक देने का अधिकार नहीं देते।
देखती हूं सोचती हूं सूखे हैं खेत यहां सूखे खलिहान है
पनघट पर अब नहीं आता कोई ओर है।
यह कैसा दौर है,। यह कैसा दौर है,
इंसान गिरे तो हंसी चहुं ओर है ,
मोबाइल गिरे तो दिल होता चकनाचूर है ।
बदलो खुद को कहो दुनिया स्वीकार है ,
यह ऐसा दौर है ,चलना सीख रहे हैं जमाने के साथ,
मुस्कुराने की कोशिश करते हैं होठों के साथ।