यह घर, और कितनी दूर है...??
यह घर, और कितनी दूर है...??
चलो चलें...
अपनों के साथ
अपनों के पास,
जिएंगे या मरेंगे, यह तो नहीं पता
पर यहां कतई नहीं रहेंगे..
यहां जीना अब गुनाह सा लगता है,
मजदूरों को बचाओ,
उन्हें दोपहर (दो पल) की रोटी खिलाओ..
यह सब भी कई दफ़ा सिर्फ
सुना सुना सा लगता है..
हम मज़बूर हैं, क्योंकि हम मज़दूर हैं
सूखी रोटी से पेट भरने की तो दूर,
यहां तो खाने को साफ हवा तक नहीं
लेकिन इस कमबख़्त भूख का क्या करें साहब,
इसकी तो कोई दवा तक नहीं
सोचा था, इन ऊंची इमारतों की बीच,
ईमानदारी (मजदूरी) की कमाएंगे
आधा पेट (खाकर) ही सही,
कुछ पैसे घर के लिए भी बचाएंगे..
बचे हुए रुपयों ने तो, अब तक पेट भर दिया
पर अब पेट भरने के लिए सिर्फ पानी है,
पिछले 3 दिनों से भूखे पड़े हैं, यूं ही
आँखें पूरी भरी हैं पर पेट पूरा खाली है..
सड़के बंद है तो क्या हुआ,
हम पैदल ही घर को जाएंगे
पैरों में छाले, कंधों पर पहाड़ और
आँखों में निराशा
कोई नई बात (कोई पहली दफ़ा) नहीं
हम इन्हें भी साथ घर ले जाएंगे
मीलों - मील कट गए यूं ही, चलते चलते
इस तपती दोपहरी में ठंडी आशा भरते भरते,
क्या हमें ही सारे दुःख सहना मंजूर है
इतने में छोटू ने पूछा...
पापा यह घर, और कितनी दूर है...??