सब चंगा सी !
सब चंगा सी !
ख़ुद की जेब में फूटीं कौड़ी नहीं,
लेकिन सपनें "पॉंच ट्रिलियन डॉलर" के दिखाएंगे
अपनों का पेट तो ठीक से भर नहीं सकते,
दूसरों को कहाँ (ख़ाक) से खिलाएंगे ?
स्कीमें आ रहीं है, जा रहीं है
सरकार सपनें दिखा रही है,
कोई हमें यह भी बताएगा की,
रिसेशन में "कांदा" कौन खायेगा ?
रही बात मौसम की तो, कुछ "पेड़" कटे है,
बाक़ी सब कुछ ठीक - ठाक चल रहा है
हाँ थोड़ी हताहत भी हुई है,
पर "मेरा देश बदल रहा" है।
पर वो देश चलातें है,
कुछ तो समझ रखतें होंगे ?
अपना वोट बैंक बढ़ाएंगे।
और, "भाईयों और बहनों"
को सरे आम पिटवायेंगे।
बाक़ी तो ज़माने का रोना है,
हमेशा रोते रहते हैं।
"दो - चार" रुपये महंगाई क्या बढ़ा दी
अब, सब सड़कों पर आकर सोते हैं।
जो भी बोलो...
हम अब भी सो रहे हैं,
समाजिक मुद्दों को छोड़ अपनों पर रो रहे हैं
"बकरें की अम्माँ" कब तक ख़ैर मनाएगी,
एक दिन ये बात तुम पर भी आएगी।
कहो न कहो...
अब धंधा मंदा सी,
देश का संविधान हो गया नंगा सी
पर, "सब चंगा सी !