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Amit Kori

Others

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Amit Kori

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कुछ ठीक नहीं...

कुछ ठीक नहीं...

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ख़ुद में रहना जब बोझ लगे,

दुनियाँ सारी मदहोश लगे ...

तुम पहुँच गए उस उम्र बाग़ में,

जहाँ जीना - मरना बोझ लगे। 


ख़ुश होने का मन नहीं करता,

सोने से जब दिल नहीं भरता...

जब आँखों को उजाला ढोंग लगे,

काला अँधियारा हर ओर लगे। 


सपनों में भी जब कुछ न दिखे,

हर रंग यादों का फीका जो पड़े..

कुछ न करने का मन यूँ करें,

तुम आधे हो क्यों दिल ये कहें...। 


हर वक़्त वही हर वक़्त लगे,

लफ़्ज़ों की सियाही रक्त लगे..

कुछ ऐसा है, कुछ वैसा है,

ख़ुद को दोहराते शब्द लगे। 


क्या इसकी कोई वज़ह नहीं,

इतना क्यों कठिन, की सहज नहीं..

क्यों लड़ नहीं पा रहा, इससे मैं,

ये कल में है, या मैं आज में नहीं। 


कोई समझ नहीं, क्या हो रहा हैं,

अंधेरे में अंधेरा खो (सो) रहा हैं...

कोई खो गया हैं, इस अँधियारे में,

ये मैं ही हूँ, या कोई और रो रहा है।


चिल्लाकर शायद कुछ हो जाए,

अँधियारा शायद कुछ खो जाये..

बस रास्ता दिख जाए मुझको,

फ़िर चाहे कुछ (जो) हो जाए। (मंज़िल खो जाए)  



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