इस शहर में...
इस शहर में...
शहर की इन शामों में एक आस है,
बुझी हुई ही सही चिंगारी से लपटें
बनने कीएक आग है,
कल की सुबह को कोलाहल से भर दे
इतनी इसकी तादात है।
भीड़ में भी जिंदा रहना,
किसी मरते को देख
उसकी हर सांस को सहना
इंसानियत को नाक़ाम होते देखना,
यहाँ की एक आम बात है
इंसानियत तो इन्होंने देखीं नहीं,
ये कहते हैं
उसके लिए थिएटर इनके पास है
नाक़ाम लोगों के बीच सफ़लता
यहाँ की जात है
इस शहर में कुछ ख़ास है।
बहती हुई ज़िंदगी यहाँ की
तेल - ईंधन पर चलती है,
और थककर जो दो पल सांस ले ले
उसकी ये कहाँ सुनती है
नर्माहट तो सिर्फ़ यहाँ की बोली में है,
कर्मों से तो ये लाचार हैं
दो पल का भी सब्र न इनको,
पर घूमना सारा संसार हैं।
असल बारिश को तो ये भूल चुकें है,
सब एसिड रेन में जो नहाय है
बात - बात पर मुँह में सिगरेट
और नुक्कड़ वाली चाय हैं।
कहने को तो ये ज़िम्मेदार बड़े है,
पर ज़िंदगी में मुड़ना था जिस मोड पर
यह अब भी उस दो - राह पर खड़े हैं,
शायद जिंदा इनमें अब भी वो जस्बात है,
इस शहर में कुछ ख़ास है।
सपनें भी यहाँ बिकतें है,
पैकेजों के दाम में,
कुछ सोते है शमशान में,
तो कुछ बीस मंज़िला मक़ान में
यूँ ही ही ख़रीद लिए जाते हैं
सपने (लोग) यहाँ,
यहाँ हर चीज़ का दाम हैं
देखता है जो, सपनें यहाँ
उसका भी अपना यहाँ
किराये का मक़ान है।
बचपना तो यहाँ की
जवानी का हिस्सा है,
कुछ पढ़तें है,
तो कुछ छोड़ देते हैं
वरना चार-पाँच रेप केस तो,
यहाँ की अख़बारों का रोज़ का
क़िस्सा (अभिन्न हिस्सा) है।
युवा तो यहाँ के चौबीस
घंटे नींद में ही रहते हैं,
वीकेंड्स पर कभी -कभार
हँस भी लेते हैं
वरना पूरा हफ़्ता लाइलाज़
बीमारी की तरह डिप्रेशन को सहते हैं,
शुरू होते ही ख़त्म हो जाए
ऐसी तो यहाँ की रात है
इस शहर में कुछ ख़ास है।
