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trisha nidhi

Tragedy

4.5  

trisha nidhi

Tragedy

ये वक़्त भी कितनी अजीब है

ये वक़्त भी कितनी अजीब है

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ये वक़्त भी कितनी अजीब है 

कभी चलते वो साथ हमारे 

तो कभी हो जाते ख़िलाफ़ हमारे 

कभी वाहन बन ज़िंदगी की राह तय करती 

तो कभी खुद काटा बन खड़ी हो जाती

ये वक़्त भी कितनी अजीब है। 

याद आते है वो दिन, किलकारी की उतरन पहन 

बचपन जब बीत गया,

हाथ में रोटी का टुकड़ा पकड़ जब माँ ने विद्यालय

के लिए तैयार किया, 

कॉलेज के पहले दिन जब चीनी दही के स्वाद से 

घरवालों ने हमें विदा किया,

वक़्त की करवट ने हमें इतना बड़ा बना दिया

दोस्तों की मासूमियत जो साथ थी हमारी तब 

आज ईर्ष्या की आग में जल रहे वो सब 

क़द तो बदल रहे पर मन भी परिवर्तित हो रहे

वक़्त के साथ, ये वक़्त भी कितनी अजीब है।

समय की इस दौड़ में, कद्र ना बची रिश्तों की 

ना दोस्ती की,

सोने की थाल में स्वार्थ का अन्न परोसने में लगे हुए है सब,

ये वक़्त भी कितनी अजीब है जब औरों की ख़ुशियाँ 

तो दूर, अपनो के आंसुओं से उदासीन है, 

अपनो के आंसुओं से उदासीन है।



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