एक अनकही राह
एक अनकही राह
ज़िंदगी सिमट सी रह गयी है,
कभी किताबों के पन्नो मे मुरझाए पत्तों की भाँति,
तो कभी वेंटिलटर के ध्वनि में ओर्ढ़ी रात्रि ,
दिन और रात में भेद अब हो नहीं है पाती।
पर आज है एक मौक़ा सही
उन खोए हुए पलो में रंग भरू नया
वक़्त और शब्द जो है मेरे
दूरियाँ उनमे आती जा रही है देर सवेरे।
वो पल अनमोल थे वो पल
दोस्तों के संग जब गाते थे ,
भवरों की तरह सहरा थे हम,
ख़ुशियों की वादियों में दुःख थे कम से कम ।
घर के परोसे थाली में,
तरकारी कितनी रंग बिरंगी थी,
ना कमाने की टहनियो से पत्तों का इंतेज़ार था,
ना ज़िम्मेदारी के जड़ो को पानी देने का ही होश था।
सरगम की धुन श्वास से शुरू होती थी तब,
और पाओं में बंधे घुंगरू की ध्वनि से ही
ताल से ताल मिलाकर खतम होती थी जब ,
था वो बचपन याद करते होंगे जिसे हम सब ।
पर याद ,बवण्डर में ही फँस कर रह गए,
मासूमियत को क्लेश ने दफ़्फ़न कर दिया ,
दोस्ती को मुक़ाबले की लौ से जला दिया,
ना समय है किसिको,
ना ख़ुशी के लव्ज़ की पोशाक में ढलने की चाह,
बस दौड़ लगाए जा रहे, उस पर, है जो एक अनकही राह।