भीगी पलकें
भीगी पलकें


चल पड़े है लोग देश के
आधुनिकीरण की मृगतृष्णा की ओर
अंतर आ गया है बड़ा बहुत, चाहे हो
छोटो की मुस्कान या वृद्ध की सम्मान
में, ना जाने कब?
वो कंपकंपाती हथेलियां
वो झुर्रियो का भीगी पलको से साथ
आंखों में खुद से ही दूर होने का डर
दो मीठी बातों की आस में
बीत जाता दिनभर!!
जिन्होंने हमें लायक बनाया
आज वही कैसे है बोझ हमारे लिए,
खून पसीने से जिन्होंने कमाया
आज नसीब में भी नहीं है दो
रोटियों की थाली उनके लिए।
उनकी खुशियां ॠण नहीं है
चुकाने की जरूरत है जिसकी
हो तो बस कर्तव्य और प्यार हमारा
कीमत नहीं है बिल्कुल उसकी।
दो लफ्ज़ के ही तो है ताक में वो
क्या इतनी सी उम्मीद भी ना लगाए
ज़िन्दगी भर की बलिदान निम्न हो गई अब,
कीमत जिसकी उनके संतान ने है लगाए।
मां बाप तुम्हारे हों या किसी और के
एक मुस्कान से उनका पूरा दिन सज जाए,
एक छोटे बालक के नखरे होते हैं इनके
शब्दों की ध्वनि बजाकर तो देखो ,
खुशी से वो है फूल ना समाए।