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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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याद आते ही

याद आते ही

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तुम्हारी याद आते ही

जहाँ भी हूँ मैं

जैसे भी हूँ

आनन्द विभोर हो उठता हूँ


और लगने लगता है

जैसे तुम मेरे पास ही हो

और मैं बात करने लगता हूँ

खुद से

सामने होता है तुम्हारा चेहरा


शायद इस सदी का

सबसे बड़ा योद्धा

सबसे बड़ा ज्ञानी

सबसे बड़ा कर्तब्य परायण

एक ज्वार सा उठता है

मन की सुनी गली में

और मेरी अपनी ख्वाहिशें

हाथ जोड़े खड़ी हो जाती हैं

मेरे ही सामने


मुझे मेरी ही सम्पन्नता का

बोध होने लगता है।

मैं चल पड़ता हूँ

एक कदम अद्भुतता की तरफ


निभाते हु

ये

अपने ही तुम्हारे द्वारा निर्धारित

जीवन के मापदंड के पथ पर

और जैसा मैं समझता हूँ दुनिया को

अपने लोकतांत्रिक निजाम को


ठीक ठीक वैसी ही

आवाजों के विचार

खबरों की तरह

गुजरने लगते हैं

और मुझसे दूर

बहुत दूर खड़े


मेरे ही हुक्मरान

मेरी ही सम्पुष्टि में खड़े होते हुये

दिखते लगते हैं

जैसे मुहर लगा रहे होते हैं

मेरे उठाये गये हर कदम पर

और मैं भी दीवानगी से भरा भरा

चल पड़ता हूँ

अपनी तरफ


तुम्हारे सामने

तुम्हारी ही खुश्बू को

अपने श्वास में भरते हुये।


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