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Vivek Agarwal

Romance Tragedy

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Vivek Agarwal

Romance Tragedy

वर्षा-वियोग (ताटंक छंद)

वर्षा-वियोग (ताटंक छंद)

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रिमझिम रिमझिम बरसे पानी,

मन मेरा फिर जलता क्यों।

ठंडी ठंडी चलें हवायें,

गर्म आह मैं भरता क्यों।


मंद मलय में मेघ मनोहर,

गरज गरज कर जब बरसे।

मन मानस मेरा मरुभूमि,

प्रेम सुधा को तब तरसे।


घन घन घोर घटा ये नभ की,

हिय में तमस जगाती है।

महकी मिट्टी सौंधी सुरभि,

क्यों मुझको तड़पाती है।


किसलय कोपल कोमल कलियाँ,

क्यों काँटों सी चुभती हैं। 

कल कल कलरव करती कोयल,

क्यों कर्कश ये लगती हैं।


विकल वेदना के अंगारे,

अंदर ऐसे जलते हैं।

शीतल फुहार के जल-कण भी,

बड़वानल से लगते हैं।


पावस-पुलकित प्रेमी करते,

परस्पर प्रेम की क्रीड़ा।

कड़क कड़क कर बिजली कहती,

कह भी दे मन की पीड़ा।


मेघ दूत भी जितने भेजे,

सन्देश सुना कर अपना।

सभी पिघल कर पथ में बरसे

सुन कर दुख भारी इतना।


शुष्क हृदय पर आँखें गीली,

हर सावन का किस्सा है।

दर्द दिया जितना भी तूने,

अब मेरा ही हिस्सा है।


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