वृक्ष
वृक्ष
वृक्ष वृक्ष रो रहा
देख कटे अपने अंग
अंकुरित हो मैं
शनैः शनैः बढ़
वृक्ष कहलाया था।
कयी रूपों में
मानव के काम
आया था।
खुश हो फूल
फल पत्तियां दे
इंसानी संवारा था।
सावन में पड़ते झूले
घोंसलों में होते
जब चिड़ियों के अंडे
तब मैं और हरहराया था।
इससे भी बढ़कर
अनमोल शुद्ध सांस
इंसानों पर न्योछावर
किया था
पर आज
अपनी जरूरत
के लिए मेरी
उदारता इंसान
भूल बैठा है
निर्दयता से
कुल्हाड़ी चला
मेरे अंगों को
छिन्न भिन्न कर
काट डाला है
देख मैंने और
मेरे अपने कटे
अंगों ने बूंद
बूंद आंसू
बहाया था
कितने खुदगर्ज
हो मानव तुम
सोचकर मैं
तड़पा था।
वर्तमान भविष्य
की कल्पना कर
मेरा हृदय
अंदर तक
टूट गया था।
