वक़्त बदला , किरदार बदले
वक़्त बदला , किरदार बदले
वक़्त बदला , किरदार बदले
आज फिर महफ़िल में अलफ़ाज़
बेरुखी सी झलकी शब्दों में उनके
देखा फुटपाथ पर , नज़ारे ना बदले
ना चाहत है दौलत , शौहरत की उनको
ना चाहिए आलिशान मकान उनको
रोता है जब सिसक - सिसक कर वो
लगता है बस दो जून की रोटी चाहिए उनको।
नज़रें ताक रही थीं ज़माने को शायद कोई आएगा खिलाने को
वो भूख से तड़प कर मर गयीना आया ज़माने में कोई बचाने को।
नाज़ुक सी हथेली में दरारें पड़ गईं
जिनको कलम चाहिए , कमाने में पड़ गए
भूख भी बड़ी कमबख्त चीज़ है साहब
नादान ज़िंदगी उजाड़ने पे तुल गए
विनती सभी से है , अहसान ये करे
जो भूखा हो उसे नज़रअंदाज़ ना करे
रोटी के बदले दुआए देगा आपको
भूखों की खातिर इंतज़ाम कुछ करे।