वो रात...!
वो रात...!
मुलाकात की वो रात
आख़िरी तो नहीं थी
माना कि फिर उस रात सी फिर कोई रात नहीं
सड़क पे पसरा था इक अव्यक्त सन्नाटा
अव्यक्त सन्नाटा इसलिये कि शोर तो था आते जाते वाहनों का
और भीड़ भी थी बेशुमार फिर भी सन्नाटा तो था
हमारे तुम्हारे दरमियाँ चुपचाप बैठा हुआ और
उस सन्नाटे को तोड़ती तुम्हारे पद की चाप
उससे टकरा कर लौटती बातों की अंतिम ध्वनि
और उसमें लिपटी तुम्हारी अव्यक्त बेबसी
समझ सकती थी इसलिए तो
जाने दिया ख़ामोशी के साथ
कहीं बाधा ना बन जाए तुम्हारे कर्तव्य के लिए
ये बे-वक़्त निकली कोई भी बात
हाँ..
मैं मानती हूँ वो आख़िरी रात थी
जब तमाम ख़्वाहिशों की बलि चढ़ गई थी
समाज की झूठी शानो शौकत और कर्तव्य के नाम पर
फिर भी कहती हूँ
वो आख़िरी रात तो नहीं थी ना...
सच कहूँ तो...
उम्मीद की इक किरण थी उसमें छुपी हुई
इसलिए मेरे दोस्त
वो आख़िरी रात थी ऐसा मत कहना
माना वो रात फिर नहीं फिरी हमारी ज़िंदगी में
फिर भी..
वो आख़िरी रात तो नहीं थी दोस्त...
वो आख़िरी रात नहीं थी..!!

