ग़जलों का साज
ग़जलों का साज
तहजीब में हूँ ग़जलों का साज बन
वगरना दो दो हाथ जीस्त से करना चाहूं
ये रहमों का असर है मुझपे या मैं ऐसा हूँ
बड़े दिन हो गए तोहमतें सुने अब खंजर उठाना चाहूं
एक शख्स बड़ा हसीन दिख रहा तस्वीरों में
आज तस्वीरों को ही मिटाना चाहूं
कितना खूबसूरत है गुज़रे कल का हुजूम साहिब
तमाम यादें इत्मीनान से आज जलाना चाहूं
ये दोर_ए_इश्क है या बस जिस्म_ए_प्यास
बेशक खामोश मगर बिन खैर ख़्वाह के रहना चाहूं
बस इतनी ही तीरगी है राहों में कामिल
आसमां को दिखाने अब अपनी रात करना चाहूं।