कौन अभावग्रस्त ?
कौन अभावग्रस्त ?
"अभावग्रस्त बेटियों के सामूहिक विवाह में मदद प्रदान करे"
एक बड़े से पोस्टर की पंक्तियाँ पढ़कर आंखो में आँसू
और सवाल दिमाग में उतर आए
हमेशा बेटियाँ ही अभावग्रस्त क्यों होती हैं ?
बेटे क्यों नहीं ?
अगर अभावग्रस्त न होते तो किसी
सामूहिक विवाह में चक्कर लगाते
अपितु दहेज़ के गठबंधन से फेरे लगाते
पर हमेशा बेटियाँ ही बनती हैं ऐसे किसी विज्ञापन का आधार
क्योंकि बेटियाँ प्रतीक हैं "बेचारी, कमज़ोरी,
दया मजबूरी, हमदर्दी और भीख" का
यह समाज कभी बेटियों की बलि चढ़ाता हैं तो
कभी उन्हें ढाल बनाकर अपनी गर्दन बचाता हैं
बात तो बराबरी की हैं ही नहीं, न हो सकती हैं
नारियों का दर्जा कहीं ऊँचा हैं पुरुषों से
इसलिए यह पंक्ति बदल दो
अभावग्रस्त "बेटियाँ" नहीं अब " बेटे" भी कर दो