वो लड़की
वो लड़की
चौराहे की लाल बत्ती के इर्दगिर्द
मेरी आँखें रोज़ तलाशती थीं उसे
वो मटमैली सी धूमिल बच्ची
फटेहाल, बिखरे से बाल
चेहरे पर भूख पसरी पड़ी थी जिसके
आँखें भीतर तक ढह गयी थीं
सारी पीड़ा कह गयी थीं
अपनी माँ के पल्लू का कोना थामे
गुज़रती थी वहीं से, जहाँ से गुज़रती थी
गन्ध उस पल्लू की
उसकी माँ अपनी गोद में लटकाये
एक अस्थि पंजर से बच्चे के
जीवन की दुहाई पर
माँगती फिरती थी एक आध रुपया
दूध की खाली बोतल दिखा दिखा कर
कहीं दुत्कारी जाती
कहीं कुछ पा भी जाती
उसकी आँखों में कभी नहीं झलकती थी
बेचारगी,शर्मिंदगी या ऐसा कुछ भी
पर उसके पल्लू से घिसटती सी वो बच्ची
अपनी आँखों को झुकाए
सर को लटकाये
बिन बोले ही बता जाती थी
बेबसी और अस्वीकार्यता
अपने इस भाग्य पर
नहीं बनी थी इस कर्म के लिए वो
ये उसका रोम रोम बता जाता था
मैं हर रोज़ उस राह से निकलते
अपने झोले में रख लेती थी उसके लिये
कुछ बिस्किट टॉफी या खिलौने
उसके हाथ
और उसकी आँखें
और उसके मुस्कुराते होंठ भी
जैसे तलाशते थे मुझे
उस भीड़ में.....
कुछ रिश्ते यूँ ही बन जाते हैं
कुछ अनकहे रिश्ते
बड़े गहरे हो जाते हैं।।