विरहणी की विरही सफर...
विरहणी की विरही सफर...
सुन विरह व्यथा एक विरहणी की ओरी
जो थी दीवानी अपने साजन की चोरी
सांवला सा मुख लेके गोरी
ओढ़ चुनर वो कोरी कोरी
लाल रंग का जो आई लेके रोरी
घुंघट का पट खोले गोरी
भरवाने सुनी मांग जो थी कोरी।
उड़ चली पुरवइया ढूंढने जो पिया
पुकारती रही वो व्याकुल था उसका जिया
चल रही थी सासें उसकी
आशा का जल रहा था जो दीया
नव यौवन पे श्रृंगार प्रकृति ने जो किया
प्रिय के न मिलने पर आसुओं ने धुल दिया।
तरसते नैन उसके ढूंढते ही रह गए पिया
झूमे जुल्फो सा बादल मस्त लहराता आंचल
हार बना श्वेत हंसो का दल
बिजली बन चमके बिंदिया जब जब गरजे थे बादल
पैरों में पायल सा लहका कुमुदो का दल
हाथों में चुड़ी बन छनका बेला का फल
विरह व्यथा ज्ञात हुआ सुन नदियों की कल कल
विरही आग पता चली जब वर्षा सावन का बादल।
पूछ रही थी पता गोरी हर आंगन में बरस
मुस्कुरा रहे थे चेहरे आया ना उसपे किसी को तरस
देख रही हूं कब से ये हो गया कितने बरस
क्या बगिया क्या शीश महल चाहे हो वो सहर
ढूंढती वो चली कभी बरसी वह तड़प
कभी शांत दुखी भावों से कभी पूछी वो कड़क।
न जानती थी बावरी न पूछी थी कुछ वो
न सोचा था उसने कभी खो देगी उसको
एक डर लिए थी चुप खड़ी
पलके बिछाए इंतजार में सासों से थी वो लड़ी
जग छोड़ेगा क्या जब खुद किस्मत साथ न दी
वो प्यार ही क्या जिसमें सिर्फ तन्हाई थी
वो सफर, सफर क्या जिसमें हमसफर की थी कमी
बस विरहणी की विरही सफर ही रह गई।

