विडम्बना
विडम्बना
जिंदगी जीने में,
और ज़िंदगी काटने में
अंतर होता है।
पहले मैं,
खिलखिला कर
हँसता था।
और अब
बिलकुल
नीरस प्राणी हूँ।
लोग
कुछ देर पीछे चलने के बाद
ठिठक कर रुक जाते हैं।
बासी चेहरे को देखकर
रास्ता बदल लेते हैं
लगता है उन्हें
मैं बात ही नहीं,
करना चाहता हूँ उनसे,
अजीब बिडम्बना है
जीवन- मृत्यु,
के इस खेल को
समझने का दावा
करने के बाद भी,
समझ नहीं पाया आजतक !
बस भाग रहा हूँ
मृगतृष्णा में।
अपना-पराया
शत्रुता- मित्रता
जय- पराजय के जंजाल से
मुक्त नहीं हूँ।
होड़ सी चल रही है
सब कुछ
कर लेना चाहता हूँ
एक साथ।
बाबूजी की डिगरियों पर
नज़र जाती है बार -बार !
प्रमोशन के लिए तब
जरूरी थीं .....।
किसी काम की नहीं अब ?
मेरी डिग्रियाँ भी
फड़फड़ा रही है।
बिखरी पड़ी हैं, यहाँ, वहाँ
सब कुछ छोडकर जाना होगा
किन्तु एक दिन !