विचित्र बटुआ
विचित्र बटुआ
पति का बटुआ बडा़ विचित्र, खुशबू इसकी जैसे इत्र
संतुष्टी का पड़ा अकाल, बटुआ मोह माया का जाल
इसको देखें मन ललचाता, सबर से फिर काहे का नाता
हम क्या मांगे और क्या पहने, बस दो साड़ी और दो गहने
हार गले का हाथ का चूड़ा, बाल सजाने को एक जूड़ा
पैरों में चांदी की पायल, करती जो तेरा दिल घायल
अब मत कहना मैं बच्ची हूं, जैसी हूं वैसी अच्छी हूं
श्रृंगार तेरा ना मुझको भाता, सादगी से जन्मों का नाता
अच्छा नहीं जो ऐसा बोलोगे, अभी नहीं तो बटुआ कब खोलोगे
मेरा दिल तोड़ क्या पाओगे, रात को न कहना कि क्या खाओगे
यह बोले ओ पत्नी प्यारी, बहुत हुई बटुए से यारी
कैसे भी दिल को समझाओ, बटुए को तुम भूल भी जाओ
क्या लोगी बाजारों में, सब कुछ ही बेहद महंगा है
कल जो चश्मा ले आई थीं, वह भी भैंगा भैंगा है
तुम जो कुछ भी ले आतीं, वह किसी काम ना आता है
सच बोलूं तो इसीलिए , यह मेरा जी घबराता है
बहुत हुई खर्चा खर्ची,अब तो तुम मान भी जाओ
आज ठीक कल का सोचो, और कुछ पैसे तो बचाओ
चलो ठीक तुम कहते हो तो, जरा धैर्य में धरती हूं
बहुत हुआ यह पैसे अब, खर्च नहीं मैं करती हूं।