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विशुद्ध प्रेम-बिन फेरे हम तेरे

विशुद्ध प्रेम-बिन फेरे हम तेरे

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अद्वितीय है प्रेम, अमर है, गरिमापूर्ण ओजस्वी

विषय वासना रहित, शर्मिंदगी का विषय नहीं

सरलतम प्राप्य नहीं, आत्मार्जन, बसता है प्राण में

करता है प्रस्तुत, भावना पावन तेरे सम्मान में


स्वार्थ, अहंकार, घृणा, द्वेष, जो तेरे मन ही में थे

प्रेमागमन से भयभीत, सब मर गए वह अनमने

फूटा कलश था भाव का और बह चले अश्रु प्रपात

हो रिक्त सा मन बावरा और प्रेम का हो आत्मसात


एक बीज था बोया ह्रदय में, अंकुरों में बंट चला

गतिमान सा सारी रगों में, रक्त ‌सा अब बह रहा

जो था अकिंचन व शिथिल, मूक सा वह झांकता

अब व्यंग्य के न बाण से, किंचित भी है वह कांपता


>इस भावना में ना कहीं, संदिग्धता का भास है

जो प्रमेय लगता तुझे तो यह, तेरे ह्रदय का त्रास है

क्यों है जरूरी के मिलन हो, जीव का इक जीव से

जब मीट चले यह स्वार्थ तो, रिश्ते बने निर्जीव से


क्यूं है जरूरी मांग भी और उतना ही सिंदूर भी

ना मानता है यह ह्रदय, इस विश्व का दस्तूर भी

तुझको किसी अनजान का, फिर चाहिए है साथ क्यूं

जब होती ही ना आत्मा की, आत्मा से बात यूं


क्यूं होना विचलित दूरियां हों, चाहे पूरी उम्र की

हो गहन बंधन मन से जो, जुड़ जाते हैं फिर तार भी

क्यूं चाहिए तू जब हो तेरी झलक, आंखों में बसी

इस विश्व के व्यवहार को, मैं मानता ही हूं नहीं।


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