अच्छी बहू-श्राद्ध
अच्छी बहू-श्राद्ध


माँ को चिंता रोज सताती कैसे हो बेटे की शादी
कितने थे संजोग मिलाए पर लड़की कोई ना भाती
दिन गुजरे अरसा गंवाया पर लड़के को कोई ना भाया
फिर अचानक इक लड़की को माँ से मिलाने लाया
फिर बोला यह तन मन है जीवन भी इस पर अर्पण है
इसने मुझ में विश्वास जताया मैं क्या हूं मुझको बतलाया
आश्वासित हूं हर जीवन में मैं साथ इसी का पाऊंगा
यदि ना पाया तो सच जानो मैं पल भर में मर जाऊंगा
माँ बोली ! प्यारे बेटे तू कैसी भी चिंता ना कर
मैं काहे आड़े आऊंगी तुझको है किस बात का डर
स्वागत कर उन घड़ियों का जो बस कुछ दिन में आएंगी
प्यारी सी बहुरानी संग में ढेरों खुशियां लाएगी
खुशियों और मेहमानों का वहां खूब लगा था मेला
पर जल्दी ही बीत गई इन खुशियों की यह बेला
बड़े ठाठ से बन ठन कर बहुरानी करती राज
काम कहें तो दो कौड़ी और दम भरती आवाज़
बन गई दासी उस घर की वो कल तक थी जो रानी
बहु रानी अपनी मौजों में करती अपनी मनमानी
बदला ऐसा रंग ना पूछो गिरगिट भी छूटा पीछे
बेटा भी हर काम करें अब अखियां मीचे-मीचे
कभी बहू ना यह पूछे बोलो माँजी क्या खाओगी
अपना पुत्र मुझे सौंपा बदले में तुम
क्या चाहोगी
पुत्रवधू होकर भी उसने दो निवाले प्रेम के दिए ना
ना कभी प्रेम से चरण छुए दुख सुख भी सांझे किए ना
एक कोने में पड़े पड़े अब जीवन लगी बिताने
मन टूटा कोई ना आया उस माँ को समझाने
तड़प तड़प और सुबक सुबक इक दिन छोड़ा संसार
अंत समय भी मिल ना पाई जिससे था प्रेम अपार
ना था कोई आंसू टपका ना कोई आवाज़
अनसुने से मन में रह गए जाने कितने राज़
अपने बेटे के मुख से फिर माँ कहलाना चाहा था
अंत समय में बेटे का फिर सिर सहलाना चाहा था
रो-रो के बहु रानी कहती सबसे दिल का हाल
कैसे इक दिन भेंट करी थी मैंने मां को शाॅल
कैसे उनकी सेवा की और कैसे मन बहलाया
कितना ध्यान करा था माँ का फिर अच्छा कहलाया
खूब किया था आयोजन बारंबार करती ब्राह्मणों को नमन
मित्र जनों की सेवा की और खूब किया था अभिवादन
लोग कसीदे पढ़ते करते थे अच्छाई के चर्चे
परिवार जन भी नई बहू की खूब प्रशंसा करते
हर श्राद्ध पर नई बहू थी ब्राह्मण भोज कराती
अपनी तारीफें सुन-सुनकर वह फूली न समाती
अपनी दिलदारी के किस्से जन-जन को सुनाती
इसीलिए तो सब लोगों में अच्छी बहु कहाती