वह घर कुछ कहता है
वह घर कुछ कहता है
मैं मकान नहीं,
ना तो मैं हूँ खंडहर,
मैं घर हूँ, घर,
हाँ भाई, आप लोगों की तरह घर,
वह घर कुछ कहता है !
चेहरे पर मासूमियत लपेटे,
नियति के इस खेल पर,
सिसक-सिसककर रोता है,
वह घर कुछ कहता है !
वह घर,
काली आँधियों से सावधान करता है,
जिनकी आत्मीयता के सोते,
सूखे बालूशाही हैं,
उस बधीर ज़माने पर जमकर हँसता है,
बस्ती के अधबने मकानों से,
आशियाने का राज़ पूछता है,
छूट गई पीछे जो कहानी,
उसकी दास्तान सुनाता है,
वह घर कुछ कहता है !
सुनसान उजाड़ उस घर की चीखें,
अब कोई नहीं सुनता,
न तो लोग कान लागाते हैं,
न अब आँख गड़ाते हैं,
क्योंकि अब वह टूट चुका है,
शून्य से घिर चुका है,
जीवन उसका इतिहास बन चुका है !
बचीं हैं, तो कुछ यादें,
कुछ निशानियाँ, किलकारियाँ,
धूल की परत में लिपटी,
दिवारें, फर्श, झरोखें, किवाड़ें,
सरो सामान देवघर, घड़ियाँ,
मौजूद हैं सभी कल-पूर्जे,
अपने होने की जगह पर स्थिर,
घड़ी चलने के इंतजार में है,
वह घर कुछ कहता है !
अब वह घर,
न सोता है, न जागता है,
मद्धिम आवाज़ में कराहता है,
अपने खोए वैभवी दिनों की याद में,
दिवारों पर लटकी,
तस्वीरें निहारता है !
घर,
छूट गया है अकेला,
करोड़ों की भीड़ में,
तनहा जीवन जीने के लिए,
तरसता एक तीली उजाले के लिए,
करता है इंतजार,
पुन: गुलज़ार होने के लिए,
खिल-खिलाकर हँसने की,
वह भी आस रखता है,
वह घर कुछ कहता है !
कौन देगा दस्तक,
इसके दरवाजे पर,
कौन लिखेगा इतिहास,
इसके वज़ूद पर,
खर्राटों के बीच,
खुद को जगा हुआ पाता है,
भोर के इंतजार में,
अर्से से वह,
रात आँखों में काटता है,
वह घर कुछ कहता है !