वह अजनबी
वह अजनबी
वह अजनबी ही तो थी
जो मेरे जेहन में आहिस्ता आहिस्ता
आंखो के दरवाज़े से कर गयी थी प्रवेश
मैं वही था लेकिन खोकर के
उसके स्वपनों में मिटा कर अपना अस्तित्व
कहां रह गया शेष
जागते और सोते
उसका अक्स ही नजर आता था
उसकी मोहनी सूरत देख कर
दिल लाख रोकने पर भी फिसल जाता था
कहां रह गया था अपना अख्तियार अपने अपने पर
प्रेम की भट्टी में मानो दिल का सोना
डाल दिया हो शुद्धता के मान दंड के लिए
गलने पर
उसके दरवाजे की आहट
या खिड़की पर दिखती हुई परिछायी
उसका भींगे बालों का झटकना
या जाने अनजाने में लेना अंगड़ाई
वह कदमों की रूनझुन पायल की आवाजें
जो आती थी चढ़ते हुए जीने में
वह मुस्कान, वह तिरछी चितवन
एक एक हरकत उसकी बस गयी थी सीने में
वह भी एक अजनबी सी रात थी
मेरे स्वप्नों और अरमानों को रौंदती हुई
आ गयी उसके राजकुमार की बारात थी
शायद उसे दिल भर कर
नजर देखने की मेरी चाहत न पूरी हो पायी कभी
वह कल भी अजनबी थी और आज भी अजनबी।