वह अभागिन अमर हो गयी।
वह अभागिन अमर हो गयी।
वह अभागिन अमर हो गई है
तिरछी उसकी कमर हो गई है।
वह अभागिन अमर हो गई है।
नि:संतान वह बुढ़िया, न कुछ काम करती है,
कैसे कमाती कैसे खाती, न ही वो आराम करती है,
न कोई देखने वाला न कोई जानने वाला
कोई नहीं है उसको अपना मानने वाला
कैसा उसका भाग्य निराला
कोई नहीं पा पहचानने वाला
वह यही कहती थी।
यही सोचते रहती थी
आखिर कब मौत द्वार उसके आएगी
कब निराशाजनक शाम आखिरी बार उसके आयेगी
वह मौत के इंतजार में अमर हो गई
तिरछी उसकी कमर हो गई
कोई न कोई बीमारी उसे हमेशा घेर रखती हे
दवाइयों का वह अलग-अलग ढेर रखती है
क्या खाये क्या पीये
वह चाहती ही नहीं और जीये
क्या करे वो मौत उसे आती नहीं है
हर दर्द की दवा पास मगर कभी वो खाती नहीं है
मौत का इंतजार करते करते, पेट बिना खाए भरते भरते
तिरछी उसकी कमर हो गई है,
वह अभागिन अमर हो गयी है।
कुछ राज छिपाए बैठी थी,
जिनका अब खुलासा होने लगा है,
उसका वक़्त अब, किसी और मैं जागकर
खुद उसमें सोने लगा है।
उलझनों का खत्म होकर शुरू नई सफर हो गयी है।
वह अभागिन अमर हो गयी है।