मेरी कुड़ेवाली सनम
मेरी कुड़ेवाली सनम
शान थी वो,
मेरी जान थी
वो उठाती कूड़ा कचरा
मेरी चाय की दुकान थी।
उसने मुझे फसाया जाल में
या मुझे तरस आया उसके हाल में
कहना मुश्किल होगा
शायद मेरा ही आया उसपर दिल होगा।
वो चाय की शौकीन
और मुझसे जान पहचान थी
उसका कूड़ा मैं बिकवाता थोड़ा हाई रेट
क्योकी मेरे मालिक की रद्दी की एक और दुकान थी।
एक तरफ रद्दी , दूसरे तरफ चाय का व्यापार था।
दिल आया कूड़े वाली पर, ऊफ़ ये कैसा प्यार था।
वो जब आती गत्ते बेचने
तो पीती जरूर चाय थी।
उसके बाकी साथी थे तेज चुटीले
लेकिन वो सीधी साधी जैसे गाय थी।
हमेशा चाय के पैसे पास रखती थी
मैं थोड़ा डिस्काउंट दे दूं ऐसी आस रखती थी।
और देखती मुझे छिप छिपके
शायद कुछ अलग अहसास रखती थी।
शायद उसके दिल मे कुछ था
कुछ कुछ सोच रही होती थी।
एक दिन मेरे सपने में वो आयी
और बताया वो ख्यालो मे मेरे खोती थी।
मेरी कल्पनाओं में कल्पना का आना
मुझे हर हाल में उसका यूं अपनाना
फिर धीरे धीरे मिलना जुलना
मेरे नाम से उसका मुझको बुलाना
एक नशा था, जो मुझे हो रहा था।
आज फिर वो मिलने आयी
तब मैं चाय के गिलास धो रहा था।
वो कूड़ा उठाकर एक दफा बेच भी आई थी रद्दी
मैं एक किनारे बैठे बर्तनों में बिजी
वो आकर हथिया ली मेरी गद्दी
पेड़ के नीचे था मेरा आसन
एक छोटा सा स्टॉल था
लेकिन आने जाने वाले लोगो के लिए
वही बिग बाजार, वही मॉल था।
कहते है मुझसे लोग चलते फिरते
तुम चाय कमाल की बनाते हो
और ब्रेड पकोड़े का कोई जवाब नही,
बहुत अच्छा पकाते हो।
इनकी तारीफों से मेरा मन खुश हो जाता
इसलिए में पेड़ के नीचे अपनी दुकान लगाता
दुकान के खुलने से सुधरने लगे थे मेरे हालात
फिर वापस मैं गरीब हो गया
जब से हुई उस कूड़े वाली से मुलाकात।
पांच की चाय बिकती,
10 की ब्रेड पकौड़ी बिक पाती थी।
और वो जब भी दुकान में आती थी
पैसे दिखा दिखा कर फ्री में सब खाती थी।
भले वो देना भी चाहे, मैं कैसे उससे पैसे लेता,
शायद इसी बात का फायदा वो उठाती थी।
पचास रुपये की टोटल सेल थी।
मैं कभी स्कूल नही गया,
वो सरकारी स्कूल में दूसरी फेल थी।
जोड़ी को देखे तो दोनो का अपना कारोबार था।
ये कैसा अलबेला सा,
कूड़े वाली और चाय वाले का प्यार था।
चाय की चुस्की में आंखे लड़ी
ब्रेड पकोड़े की तारीफ में हुआ इजहार था।
दिल मिल गए, और बातें भी हो गयी।
बस शुभ मुहर्त का इंतजार था।
और शुभ मुहूर्त का इंतजार करते रहेंगे हम,
मैं उसका चायवाला, वो मेरी कुड़ेवाली सनम।

