वेगवती नदी और संन्यासी..!
वेगवती नदी और संन्यासी..!
नहीं...!
नदी थमी नहीं है,
देखो इसके
तीव्र प्रवाह को
इसकी वेगवती
धाराएँ अभी भी
वैसी ही हैं...।
किंतु...,
इसमें तनिक मलिनता
प्रविष्ट हो चुकी है...।
सन्यासी...!
देखो इसके तट को
क्या यह
तुम्हारे साधना के
योग्य है...?
नहीं...,
कदापि नहीं...!
तुम्हारे वर्षों की
तपस्या से भी
इसकी मलिनता
नहीं मिट सकी;
लौट जाओ
इसके तट से;
क्यो स्वयं के
अस्तित्व व्यक्तित्व को
मलिन कर रहे हो...?
हाँ...!
जाते जाते
अपने सारे
विषाद, शोक
और व्याकुलता को
प्रवाहित कर जाना
इसकी धारा में
यह अपने साथ
तुम्हारे व्याकुलता को
बहा ले जायेगी;
भरती जायेगी,
तुम्हारे भीतर
नव संचार और
उत्साह और उमंग
बोलो कर पाओगे...?
क्या तुम,
अब भी मलिनता से पूर्ण
जल का इसके
पान कर पाओगे...!
यदि हाँ तो,
सन्यासी तुम
धन्य हो...!
सहनशीलता भी
तुम्हारी सराहनीय है...।
हाँ..., देखो!
नदी तो
अभी भी बेगवती ही है...।