श्रीमद्भागवत -३५ दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन
श्रीमद्भागवत -३५ दस प्रकार की सृष्टि का वर्णन
विदुर जी पूछें मैत्रेय जी से
प्रभु जब अंतरध्यान हो गए
कितने प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की
उस ज्ञान से ब्रह्मा जी ने।
मैत्रेय कहें, फिर ब्रह्मा जी ने
चित को लगाया नारायण में
सौ वर्ष तक तप किया
फिर लग गए सृष्टि रचना में।
झकोरों से प्रलय वायु के देखें
कांप रहा जल और कमल भी
विज्ञानं बल बढ़ गया था तप से
सब वायु और जल गए पी।
लोकों की रचना करूँ मैं
सोचें करूँ मैं इसी कमल से
कमलकोष में प्रवेश किया और
तीन भाग कर दिए थे उसके।
भू :, भुव :, स्व ये तीनों लोक हैं
जीवों के भोगस्थान हैं ये सब
ब्रह्मा फिर भगवान हरि की
कालशक्ति से सृष्टि रचें सब।
पहले विश्व था लीन हरि में
ब्रह्म रूप में ये स्थित था
उस को काल के द्वारा हरि ने
पुन :पृथक रूप में प्रकट किया।
यह जगत जैसा अब है
वैसा ही पहले भी ये था
भविष्य में भी अगर हम देखें
ये जगत ऐसा ही रहेगा।
दस प्रकार की सृष्टि होती
प्रलय तीन प्रकार का होता
पहली सिष्टि महतत्व की है
दूसरा प्रकार अहंकार है होता।
तीसरी सृष्टि भूतसर्ग है
चौथी इन्द्रीओं की है होती
पांचवीं सृष्टि देवताओं की
छठी सृष्टि अविद्या की होती।
ये छह हैं प्राकृत सृष्टियां
बाकी सब वैकृत हैं होतीं
सातवीं सृष्टि वृक्षों की है
आठवीं सृष्टि पशु पक्षिओं की।
नौवीं सृष्टि मनुष्यों की है
दसवीं सृष्टि देवसर्ग की
और एक जो कोमारसर्ग है
वह प्राकृत विकृत दोनों प्रकार की।
इस प्रकार भगवान हरि ही
ब्रह्मा के रूप में, प्रत्येक कलप में
स्वयं ही जगत के रूप में
अपनी ही रचना वो करते।