गुरु की महिमा
गुरु की महिमा
गुरुजन की महिमा बनी जो मुझ पर मैं शुन्य से अनंत हुआ
कृपा जो हुई आपकी मुझ पर नाम मेरा प्रसिद्ध हुआ
आपके दिए ज्ञान के कारण है बढ़ रहा वर्चस्व मेरा
ज़िन्दगी की उलझनों में फंसकर आवाह्न आप का कर रहा ह्रदय मेरा
होती आत्मा क्या परमात्मा आपने मुझे है बताया
आपके स्नेह मात्र से बुराइयों को मैं दूर भगाया
कोटि कोटि धन्यवाद कर रहा है ये रोम रोम मेरा
दर्पण के समरूप पाख और निर्मल रहे गुरु शिष्य का नाता अपना
सदियों से परंपरा चली आ रही नहीं ये कोई रीत नयी
गुरु जो मांगे प्राण अगर भी शिष्य अर्पण कर दिया वहीं
गुरु दक्षिणा की बात ना करते है अगर जो त्रिभुवन ज्ञानी
अर्जुन को गुरु द्रोण सिखाते नए भारत की नींव पुरानी
शास्त्रार्थ का अर्थ समझिये महज़ मुझे है ये बात बतानी
गुरु के खातिर भेंट चढ़े जो हो बने वो विश्व कहानी।