श्रीमद्भागवत -१०९ ; भिन्न भिन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन
श्रीमद्भागवत -१०९ ; भिन्न भिन्न ग्रहों की स्थिति और गति का वर्णन
शुकदेव जी से कहें परीक्षित, आपने कहा
राशिओं की तरफ चलते यद्यपी सूर्य यह
मेरु और ध्रुव को दायीं और रखकर
चलते ये मालूम होते हैं।
दक्षिणवृत्त नहीं होती है
किन्तु वस्तुत उनकी गति तब
हम किस प्रकार समझें इस विषय को
विस्तार से समझाएं हमें अब।
शुकदेव जी कहें, हे राजन
उपलक्षित जो नक्षत्र और राशिओं से
उस कालचक्र में पड़कर सूर्य की गति
वस्तुतः में भिन्न है उससे।
ध्रुव और मेरु को दाएं रखकर
घूमने वाले सूर्यादि जो ग्रह हैं
कालभेद में भिन्न भिन्न
राशि, नक्षत्रों में देख पड़ते हैं।
कर्मों की शुद्धि और कल्याण के लिए
भगवान नारायण ही लोकों के
काल को वो ही विभक्त करें
बारह मासों में और छः ऋतुओं में।
वर्णाश्रम का अनुसरन हैं करते
इस लोक में पुरुष जो
श्रद्धाभक्ति आराधना करके उनकी
परमपद प्राप्त करते वो।
आत्मा सम्पूर्ण लोकों की
भगवान सूर्य ही एक हैं
स्थित आकाश मण्डल के कालचक्र में
पृथ्वी द्ययूलोक के मध्य में है जो।
वहां पर स्थित होकर वो
बारह मासों को हैं भोगते
जो मास प्रसिद्ध हैं जग में
मेष आदि राशिओं के नाम से।
प्रत्येक मास है चन्द्रमा के
शुकल और कृष्ण दो पक्ष का
पितृमान के एक रात और दिन का
सौरमान के सवा दो नक्षत्र का।
जितने काल में सूर्य देव जी
संवस्तर का छठा भाग भोगते
ये काल जितना होता है
उसे हम एक ऋतु हैं कहते।
भगवान सूर्य का जो मार्ग आकाश में
उससे आधा वो पार करते हैं
जितने समय में इसे पार करें
उसे एक अयन कहते हैं।
एक लाख योजन ऊपर है
चन्द्रमा, सूर्य की किरणों से
चाल बहुत तेज है इसकी
रहता सब नक्षत्रों से आगे।
सूर्य के एक वर्ष के मार्ग को
तय करते ये एक मास में
मास के मार्ग को सवा दो दिनों में
एक पक्ष के मार्ग को एक ही दिन में।
क्षीण होती हुई कलाओं से
कृष्ण पक्ष में ये चन्द्रमा
पितृगन के दिन रात का
ये वहां विभाग है करता।
और शुक्ल पक्ष में भी
बढ़ती हुई कलाओं से ये
देवताओं के दिन रात का
वैसे ही विभाग ये करें।
एक एक नक्षत्र को पार करते हैं
तीस तीस मुहूर्तों में ये
अन्नमय, अमृतमय होने के कारण
समस्त जीवों के प्राण और जीवन ये।
देवता, पितर, मनुष्य, पक्षी आदि सहित
प्राणियों का पोषण करते ये
सोलह कलाओं से युक्त हैं
इसलिए सर्वमय हैं कहते।
तीन लाख योजन ऊपर इनके
अभिजित सहित हैं अट्ठाईस नक्षत्र
कालचक्र में नियुक्त ये घूमते
मेरु को दायीं और रखकर।
इससे दो लाख योजन ऊपर
शुक्र ग्रह दिखाई है देता
गतिओं के अनुसार ही सूर्य की
उनके आगे, पीछे, साथ साथ में चलता।
वर्षा करने वाला ये ग्रह है
लोकों के प्राय: अनुकूल है रहता
वर्षा रोकने वाले ग्रहों को
अपनी गति से शांत कर देता।
बुध, चन्द्रमा का पुत्र जो
दो लाख योजन ऊपर शुक्र के
होता मंगलकारी ग्रह ये जब
सूर्य की गति का उल्लंघन न करें।
किन्तु उल्लंघन करें सूर्य की गति का
तब सूचना देता है भय की
बहुत अधिक आंधी, बादल और
सूचना ये लाता सूखे की।
इससे दो लाख योजन ऊपर
जो ग्रह है वो मंगल है
अशुभ ग्रह इसे हैं कहते
प्राय: अमंगल का सूचक है।
इसके दो लाख योजन ऊपर
ग्रह जो है वो बृहस्पति है
ये प्राय: ब्राह्मण कुल के लिए
बहुत ही अनुकूल रहते हैं।
बृहस्पति से दो लाख योजन ऊपर
शनैश्चर दिखाई देते हैं
तीस तीस महीने तक ये
एक एक राशि में रहते हैं।
सब राशिओं को पार करने में
तीस वर्ष इन्हें लग जाते हैं
और प्राय: सभी के लिए
शनैश्चर ग्रह अशांति दायक हैं।
इनके ऊपर ग्यारह लाख योजन पर
कश्यप आदि सप्तऋषि होते हैं
लोकों की मंगल कामना करते हुए
ध्रुव लोक की प्रदक्षिणा करते हैं।
