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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत - १११; राहु आदि की स्थिति, अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन

श्रीमद्भागवत - १११; राहु आदि की स्थिति, अतलादि नीचे के लोकों का वर्णन

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शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित

कुछ लोगों का कथन ये है कि

सूर्य के दस हजार योजन नीचे

घूमता राहु, समान नक्षत्रों के।


देवत्व, ग्रहत्व प्राप्त किया इसने

भगवान की ही कृपा से

स्वयं ये इसके योग्य नहीं है

सिंही का पुत्र असुराधम होने से।


सूर्य का जो ये सूर्य मंडल है

दस हजार योजन विस्तार है इसका

चन्द्रमण्डल का बारह हजार योजन

तेरह हजार योजन विस्तार राहु का।


अमृतपान जब हो रहा था

राहु देवता के वेष में

बैठ गया आकर वो वहां

सूर्य, चन्द्रमा के बीच में।


उन्होंने इसका भेद खोल दिया

याद कर कर ही उस वैर को

उनपर आक्रमण करता है

अमावस्या और पूर्णिमा को।


भगवान ने यह देखकर

सूर्य, चन्द्रमा की रक्षा के लिए

अपने प्रिय आयुध सुदर्शन को

नियुक्त किया पास उन दोनों के।


चक्र ये निरंतर घूमता रहता

उसके तेज से राहु उद्दिग्न हो

महूर्तमात्र उनके सामने टिककर

सहसा ही लौट जाये वो।


जितने देर वो सामने ठहरे

उसको ही लोग ग्रहण कहते हैं

राहु से दस हजार योजन नीचे

 सिद्ध, चारण, विद्याधरों का स्थान है।


इसके नीचे जहाँ तक भी

बादल दिखाई दे रहे हैं

और वायु की गति है

उसे अंतरिक्ष लोक कहते हैं।


यक्ष, राक्षस, पिशाच, प्रेतों और

भूतों का विहार स्थल है ये

और हमारी पृथ्वी जो है

सौ योजन है उसके नीचे।


हंस, गिद्ध, बाज और गरुड़ आदि

प्रधान प्रधान सब जो पक्षी हैं

उड़ सकते हैं वो जहाँ तक

वहीं तक इसकी सीमा है।


उसके नीचे सात लोक हैं

अतल, वितल, सुतल, तलातल हैं

महातल, रसातल और पाताल

ये सातों इनके नाम हैं।


दस दस हजार योजन की दूरी पर

एक के नीचे एक स्थित हैं

लम्बाई, चौड़ाई इनमें से प्रत्येक की

दस दस हजार योजन है।


विषयभोग, ऐश्वर्य, आनंद, धन

स्वर्ग से भी अधिक हैं इनमें

दैत्य, दानव और यम निवास करें

क्रीड़ा करते वो क्रीड़ा स्थलों में।


गृहस्थाश्रम का वो पालन करते

रहते वैभवपूर्ण भवनों में

इंद्र में भी सामर्थ्य नहीं है

बाधा डाले उनके भोगों में।


मायावी मयदानव की बनाई

अनेकों पुरियां शोभा हैं इनकी

सुन्दर वन, उपवन, जलाशय

विहार करें वहां सुन्दर पक्षी।


सूर्य का प्रकाश नहीं होता वहां

विभाग न हो वहां दिन रात का

नागों की मणियां दूर करें

सम्पूर्ण अन्धकार वहां का।


वहां रहते जो निवासी हैं उनको

शारीरिक, मानसिक रोग नहीं होते

सुंदर, शक्ति सम्पन्न रहते हैं

दिव्य वस्तुओं के सेवन से।


मृत्यु नहीं हो सकती उनकी

सुदर्शन चक्र के सिवा किसी साधन से

सुदर्शन के आने पर भय से ही

गर्भपात हो जाते स्त्रियों के।


मयदानव का पुत्र असुरबल

रहता है उत्तल लोक में

मायावी बड़ा वो और रची हैं

छियानवें प्रकार की माया उसने।


जम्भाई ली एक बार थी उसने

उस समय उस के मुख से ही

स्वैरिणी, कामिनी, पुंश्चली

तीन प्रकार की स्त्रियां उत्पन्न हुईं।


स्वैरिणी अपने वर्ण के पुरुषों से रमन करे 

कामिनी करती अन्य वर्णों से भी 

पुंश्चली अत्यंत चंचल स्वाभाव की 

पुरुषों से रमन करें ये स्त्रियां सभी। 


हाटकेश्वर नामक महादेव जी 

उसके निचे वितल लोक में 

रहते हैं सहित वो वहां 

अपने पार्षद भूत गणों के। 


प्रजापति की सृष्टि की वृद्धि के लिए 

भवानी के साथ विहार हैं करते 

हाटकी नाम की श्रेष्ठ नदी निकलती 

वहां उन दोनों के तेज से। 


हाटक नाम का सोना थूकता 

अग्नि पीकर उसके जल को 

दैत्यराजों के अन्त:पुरों में स्त्रीपुरुष 

धारण करते उसके आभूषणों को। 


वितल से नीचे सुतल लोक है 

विरोचन पुत्र बलि रहते उसमें 

भगवन कृपा से ही वहां प्रवेश हुआ 

जब वामन बन तीनों लोक छीन लिए। 


भगवान का हृदय भरा रहता है 

अपने भक्तों के लिए दया से 

हाथ में गदा ले कर नारायण 

बलि के द्वार पर सदा हैं रहते। 


 दिग्विजय एक बार करता हुआ 

पहुंचा था रावण वहां पर 

पैर के अंगूठे की ठोकर से 

फेंका उसे लाखों योजन पर। 


सुतल के नीचे तलातल है 

रहता वहां दानवराज मय है 

मायावीयों का परम गुरु वह 

महादेव के द्वारा सुरक्षित है। 


उसके नीचे महातल में रहता 

क्रोधवश नामक समुदाय सर्पों का 

वो सब हैं अनेकों सिर वाले 

कद्रू से जन्म हुआ उनका। 


कुहक, तक्षक, कलिय, सुषेण आदि 

प्रधान हैं ये कुछ उन सब में से 

डरते हैं वो बस भगवान के 

वाहन पक्षीराज गरुड़ से। 


उसके नीचे जो रसातल है वहां 

रहते दैत्य, दानव पणि नाम के 

बलवान वो, देवताओं के विरोधी 

सर्वदा इंद्र से वो डरते। 


रसातल से नीचे पाताल है 

नाग बड़े फणों वाले रहें जहाँ 

शंख, कुलिक, महाशंख, शंखचूड़ 

और वासुकि प्रधान हैं वहां। 


इन नागों की मणियां जो हैं 

दमकती हैं तो प्रकाश वो करतीं 

और वो पाताल लोक का 

अन्धकार नष्ट कर देतीं। 


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