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Ajay Singla

Classics

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श्रीमद्भागवत -१४३; प्रह्लाद जी का राज्याभिषेक और त्रिपुर दहन की कथा

श्रीमद्भागवत -१४३; प्रह्लाद जी का राज्याभिषेक और त्रिपुर दहन की कथा

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नारद कहें, बालक होने पर भी 

यही समझा प्रह्लाद जी ने कि 

विघन है वर मांगना भक्ति का 

मुस्कुराकर भगवान से कहा इसीलिए।


प्रभो, मैं तो जन्म से ही 

आसक्त हूँ इन विषयभोगों में 

आप इन वरों के द्वारा 

अब मुझको न लुभाइये।


उन भोगों के संग से डरकर 

और जो वेदना हो उनके द्वारा 

उनके छूटने की अभिलाषा से 

शरण आपकी मैं हूँ आया।


ये विषयभोग हैं डालने वाले 

जन्म मृत्यु के चक्र में 

मैं आपका निष्काम सेवक हूँ 

निष्पेक्ष स्वामी आप हैं मेरे।


यदि आप वर देना चाहते 

तो ये वर दीजिये मुझको 

कि मेरे ह्रदय में किसी कामना का 

बीज ही अंकुरित न हो।


मनुष्य जब परित्याग कर देता 

मन की सभी कामनाओं का 

उसी समय वह मनुष्य फिर 

भगवान् को प्राप्त कर लेता।


नृसिंह जी कहें प्रह्लाद से 

एकांतप्रेमी तुम्हारे जैसे जो 

लोक परलोक की किसी वस्तु के लिए 

कोई कामना नहीं करते हैं वो।


 फिर भी मेरी प्रसन्नता के लिए 

भोग स्वीकार करो दैत्याधिपतिओं के 

केवल एक मन्वन्तर तक ही 

तुम भोगो ये इस लोक में।


ह्रदय में मुझे तुम देखते रहना 

मेरी लीला कथा सुनते रहना तुम 

पुण्यकर्मों द्वारा पाप का नाश कर 

शरीर छोड़ मेरे पास आना तुम।


गाण तुम्हारी विशुद्ध कीर्ति का 

लोग करेंगे देवलोक में 

प्रह्लाद कहें एक और वर माँगूँ मैं 

आप स्वामी वर देने वालों के।


मेरे पिता ने आपकी निन्दा की 

द्रोह किया, आपके भक्त मुझसे भी 

शुद्ध करें पिता के दोषों को 

आपसे प्राथना करता हूँ मैं यही।


नृसिंह भगवान कहें, प्रह्लाद सुनो 

पवित्र हो, तर गए तुम्हारे [पिता 

क्योंकि कुल पवित्र करने वाला उन्हें

तुम्हारे जैसा पुत्र प्राप्त हुआ।


तुम्हारे जो अनुयायी होंगे संसार में 

मेरे भी भक्त हो जायेंगे वो 

तुम सभी भक्तों के आदर्श हो 

अब पिता की अंत्येष्टि करो।


तुम्हारे जैसी संतान के कारण 

उत्तम लोक की प्राप्ति होगी उन्हें 

अपने सारे कर्म करो तुम 

स्थित हो पद पर अपने पिता के।


नारद जी कहें, हे युधिष्ठर फिर 

राजयभिषेक किया उनका ब्राह्मणों ने 

नृसिंह को प्रसन्न देख स्तुति की 

देवता, ऋषि और ब्रह्मा जी ने।


पूजा स्वीकार कर ब्रह्मा जी की 

नृसिंह भगवान अंतर्धान हो गए 

दैत्यों का अधिपति बनाया प्रह्लाद को 

ब्रह्मा और शुक्राचार्य आदि ने।


युधिष्ठर जिनको हैं ढूँढ़ते रहते 

बड़े बड़े हैं महापुरुष जो 

तुम्हारे प्रिय हितेषी ममेरे भाई 

परब्रह्म हैं कृष्ण वो।


एक मात्र आराध्य देव वही 

प्राचीन काल में जब मयासुर ने 

कलंक लगाना चाहा रूद्र की कीर्ति पर 

उनके यश की रक्षा की कृष्ण ने।


युधिष्ठर ने पूछा, नारद जी 

कृपाकर ये कथा सुनाईये 

क्या किया था मयदानव ने 

और कैसे रक्षा की श्री कृष्ण ने।


नारद जी कहें कि देवताओं ने 

शक्ति प्राप्त कर कृष्ण की 

असुरों को युद्ध में जीत लिया था 

बात है ये बहुत पहले की।


मायावियों के परमगुरु मयदानव 

शरण में गए उनकी असुर सब 

मयासुर ने तीन विमान बनाये 

सोने, चांदी और लोहे के तब।


तीनों विमान बड़े विलक्षण थे 

मानो तीन पुर समान वे 

दैत्य उन विमानों में छिपकर 

लोकपालों का नाश करने लगे।


शंकर की शरण में गए 

और प्रार्थना की लोकपालों ने 

देवाधिदेव रक्षा कीजिये 

त्रिपुर में रहने वाले असुरों से।


धनुषपर वाण चढ़ाकर शंकर ने 

छोड़ दिए उन तीनों पुरों पर

आग की लपटें वाणों से निकल रहीं 

स्पर्श से निष्प्राण हुए सब असुर।


उठा लाया मय उन दैत्यों को 

अमृतकुंड में उनको डाल दिया 

शरीर सुदृढ़ और तेजस्वी 

अमृत के कारण उनका हो गया।


भगवान कृष्ण ने जब देखा कि 

संकल्प पूरा न होने से 

उदास हो रहे महादेव हैं 

एक युक्ति तब की उन्होंने।


भगवान विष्णु स्वयं गौ बन गए 

ब्रह्मा जी बछड़ा बने थे 

जाकर उन तीनों पुरों में 

कुण्ड का सारा अमृत पी गए।


दैत्य रक्षक जो वहां खड़े थे 

वो उनको रोक न सके 

भगवान की ये सब माया थी 

वो उससे थे मोहित हो गए।


अपनी शक्तिओं के द्वारा वहां 

इसके बाद फिर श्री कृष्ण ने 

युद्ध की सामग्री तैयार की 

भगवान श्री शंकर के लिए।


धर्म से रथ, ज्ञान से सारथि 

वैराग्य से ध्वजा, ऐश्वर्य से घोड़े 

तपस्या से धनुष, विद्या से कवच 

क्रिया से वाण निर्माण किये उन्होंने।


इन सामग्रियों से सजकर फिर 

रथ पर सवार हुए शंकर थे 

धनुष वाण चढ़ा तीनों विमानों को 

भस्म कर दिया था उन्होंने।


देवता, ऋषि, पितरों ने वहां 

जय जय कार की और पुष्प वर्षा की 

तीनों पुरों को जलाकर शंकर ने 

पुरारी की पदवी प्राप्त की।


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