श्रीमद्भागवत -१०८; सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन
श्रीमद्भागवत -१०८; सूर्य के रथ और उसकी गति का वर्णन
शुकदेव जी कहें, हे राजन
हमने तुम्हे जो बताया है ये
भूमण्डल का कुल इतना ही विस्तार है
परिमाण और सहित लक्षणों के।
विद्वान लोग इसी के अनुसार ही
द्ययुलोक का ही परिमाण बताते
इन दोनों के बीच अंतरिक्षलोक है
इन दोनों का संधिस्थान ये।
इस के मध्य मैं स्थित
ग्रहों के अधिपति भगवान सूर्य हैं
ताप और प्रकाश से तीनों लोकों को
तपाते और प्रकाशित करते हैं।
उत्तरायण, दक्षिणायन और विषुवत्त नाम की
मंद, शीघ्र, और समान गतिओं से
दिन रात बड़ा, छोटा, समान करते
चलते हुए समयनुसार राशिओं में।
मेष या तुला राशि में चलते तो
समान हो जाते दिन रात ये
वृषादी पांच राशिओं में चलें तो
छोटी हो जाती रातें हैं।
प्रति मास एक घडी कम होती
उसी हिसाब से दिन बढ़ते जाते हैं
वृश्चकादि पांच राशिओं में चलें तो
उसके विपरीत परिवर्तन होता है।
जब दक्षिणायन आरम्भ होता है
इसी प्रकार दिन बढ़ते तब भी
और उत्तरायण लगता है तो
रात्रियां हैं बढ़ती जाती।
मानसोत्तर पर्वत पर सूर्य की
परिकर्मा का मार्ग जो है
नौ करोड़ इक्यावन लाख योजन
पंडितजन ये बतलाते हैं।
उस पर्वत पर मेरु के पूर्व में
इंद्र की देवधानी है
दक्षिण में यमराज की संयमनी
निमलोचनि पश्चिम में वरुण की।
उत्तर में चन्द्रमा की विभाभरी
चारों दिशाओं में चारों पुरियां ये
इनमें सूर्योदय, मध्याहन,सायंकाल,अर्धरात्रि
समय समय पर होते रहते हैं।
प्रवृति और निवृति होती है
उन्ही से सम्पूर्ण जीवों की
सुमेरु पर रहने वालों को
सूर्य तपाते मध्यकालीन रहकर ही।
सूर्य भगवन जब उदय होते हैं
एक तरफ की पुरी में
वो अस्त होने लगते हैं
ठीक दूसरी और की पुरी में।
इंद्र की पुरी से चल कर सूर्य
यमराज की पूरी को चलते हैं
एक घडी में सवा सौ करोड़ और
साढ़े बारह लाख योजन चलते हैं।
इसी क्रम में पार करें वो
वरुण, चन्द्रमाँ की पुरी से
फिर वापिस पहुँच जाए हैं
इंद्र की देवधानी पुरी में।
चन्द्रमादि अन्य ग्रह भी
अन्य नक्षत्रों के साथ में
उदय, असत होते रहते हैं
इसी प्रकार ज्योतिष्चक्र में।
इस प्रकार सूर्य का रथ ये
चलता हुआ एक मुहूर्त में
चौंतीस हजार आठ सौ योजन
घूमता रहता इन चार पुरिओं में।
इसका सवंत्सर नाम का एक चक्र है
इसके मास रूप बारह अरे हैं
ऋतुरूप छः नेमियां हैं
तीनचौमासे रूप तीन नाभि हैं।
इस रथ की धुरी का एक सिरा
मेरु पर्वत की चोटी पर
और इसका दूसरा सिरा जो
है वो मानसोत्तर पर्वत पर।
इसमें लगा हुआ यह पहिया
पहिये समान ही कोहलू के
घूमता हुआ चक्र लगता
ऊपर मानसोत्तर पर्वत के।
बैठने का स्थान जो है उस रथ में
छतीस लाख योजन लम्बा है
नौ लाख योजन चोड़ा वो
छतीस लाख योजन उसका जूआ है।
अरुण नाम के सारथि इसमें
गायत्री अदि छंदों के सात घोड़े हैं
वो ही इस रथ पर बैठे हुए
भगवान सूर्य को ले चलते हैं।
सूर्यदेव के आगे बैठे
अरुण जी उन्ही की और मुँह करके
इस रथ को हैं चलाते
सारथि का हैं वो कार्य करते।
भगवान सूर्य के आगे बैठे
साठ हजार ऋषिगण हैं जो
स्वस्तिवाचन के लिए नियुक्त हैं
स्तुति करते रहते हैं सब वो।
इसके इलावा ऋषि, गन्धर्व, अप्सरा
नाग, यक्ष,राक्षस, और देवता
सात गण कहे जाते जो
सूर्य की करते उपासना।
भगवान सूर्य इस भूमण्डल के
नौ करोड़ इक्यावन लाख योजन घेरे में
दो हजार दो योजन की दूरी
प्रत्येक क्षण में पूरी हैं करते।