तिरंगा
तिरंगा
दूर दूर तक मिट्टी फैली अस्तित्व की खामोशी समेट रही
दूर दूर कर हम भगा रहे हवा जो सांसें बदल रही
डाल डाल पर पत्ति निकली गलत सही को आंक रही
ख़ामोशी दरमियाँ अपने मृगतृष्णा फैला रही
सुबह सवेरे किरण की माया सूर्य को अचरज में डाल रही
है कितनी क्षमता अंदर दुनिया को ये दिखा रही
बार बार मुँह मोड़ती है पृथ्वी सूर्य को कोई भय नहीं
फिर सुबह बदलेगी ये नयी कोई बात नहीं
हरियाली खेतों से ऐसे निकली जैसे सरसो की पराग नयी
केसरिया रंग उत्पन्न हुआ जब आसमान में सूर्य नहीं
शांति से श्वेत निकला इंसानों को समझ नहीं
श्वेत धारण कर मुर्ख हम पगडण्डी पर बैठ रहे
धरा वसुंधरा आपस में जुड़कर चक्र की तीली बना रही
मुझे लगता है ऐसा जैसे सृष्टि तिरंगे में समा रही।