आओ सजायें जिन्दगी की पगडंडी
आओ सजायें जिन्दगी की पगडंडी
थोड़ी टेढ़ी, थोड़ी सीधी, इठलाती,
बल खाती, छुपती छुपाती पगडंडी।
गांव के बीच, खेत खलिहानों से,
जा रही छैलछबिली वह पगडंडी।
सुबह जब पड़ती सूरज की किरणें,
श्वेत धवल सी चमकती पगडंडी।
किरणों संग करती रहती रंगरेलियाँ,
चुलबुली पतली सी वह पगडंडी।
उड़ता जब कभी हवा का तूफान,
धूलि धूसरित हो जाती पगडंडी।
ढोती रहती हरदम बोझ सभी का,
थके पैरों को आसरा देती पगडंडी।
जिन्दगी भी है सपनों की पगडंडी,
छुए अनछुए पलों की पगडंडी।
अच्छे बुरे भावों की पगडंडी,
जन्म से लेकर मृत्यु तक की पगडंडी।
कितने आए, कितने चले गए,
पनपती रही जिन्दगी की पगडंडी।
कभी बहती, कभी मुस्कुरा देती,
बदलती रहती जिन्दगी की पगडंडी।
बचपन देखती, यौवन भी देखती,
बुढ़ापे की ओर बढ़ती यह पगडंडी।
मुसीबतों के थपेड़े भी सह जाती,
फिर संभल जाती यह पगडंडी।
राह नहीं इसकी भी सीधी साधी,
कठिनाइयों से भरी यह पगडंडी।
कभी संवरती, कभी बिफरती,
कांटों का साज है यह पगडंडी।
आओ बनायें मिलकर जीवन में,
सद्भावों की आज एक पगडंडी।
चलें साथ मिलकर हम बनायें,
परमात्मा तक पहुँचने की पगडंडी।
सजा दें दीयों से, पगडंडी का हर छोर,
महका दें हर पगडंडी को, आज चहूँ ओर।
भावों की मिठाई बने, अहसासों की रंगोली,
भर जाए खुशियों से, आज गरीबों की झोली।
