श्रीमद्भागवत १९१; ययाति का गृहत्याग
श्रीमद्भागवत १९१; ययाति का गृहत्याग
श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित
ययाति होकर स्त्रिओं के वश में
वर्षों तक वो अपने प्रिय
विषयों का भोग करते रहे।
एक दिन अधःपतन पर दृष्टि गयी
बड़ा वैराग्य हुआ तब उन्हें
प्रिय पत्नी देवयानी को तब
इस गाथा का गान किया उन्होंने।
कहें वे ' हे भृगुनंदिनी
ये गाथा सुनो तुम मुझसे
मेरे ही समान विषयी का यह
सत्य इतिहास है इस पृथ्वी में।
विषयी पुरुषों के सम्बन्ध में
वनवासी जितेन्द्रिय पुरुष जो
दुःख के साथ विचार किया करते
जिससे उन सब का कल्याण हो।
एक बार एक बकरा था
अकेला घूम रहा था वन में
ढूंढ़ता हुआ उन वस्तुओं को
जो प्रिय लगती थीं उसे।
उसने देखा कि अपने कर्मवश
गिरी पड़ी एक बकरी कुँए में
सोचने लगा कामी बकरा वो
किस प्रकार निकालूं मैं इसे।
अपने सींग से कुँए के पास की
धरती खोद डाली थी उसने
सुंदर बकरी जब बाहर निकली तो
प्रेम करना चाहा बकरे से।
बकरा वो बहुत प्यारा था
दूसरी बकरिओं ने भी जब देखा कि
कुएं में गिरी बकरी ने पति चुना
उसे ही पति चुन लिया उन्होंने भी।
कामरूप पिशाच सवार था
सिर पर उस समय बकरे के
अकेला ही बहुत सी बकरिओं के
संग विहार लगा वो करने।
कुएं से निकली हुई बकरी ने
जब देखा कि मेरा पति तो
दूसरी बकरिओं से विहार कर रहा
छोड़ कर चली गयी वो उसको।
अपने पालने वाले के पास गयी
बकरा भी उसके पीछे पीछे चला
बकरी को मनाना चाहा पर
वो उसको मना न सका।
उस बकरी का स्वामी ब्राह्मण था
क्रोध में आकर फिर उसने
बकरे के अंडकोष काट दिए
परन्तु फिर जब उसने सोचा ये।
कि इसमें बकरी का भी भला नहीं है
तो फिर से जोड़ दिया उन्हें
इस प्रकार फिर बहुत दिनों तक
बकरा फंसा रहा विषय भोगों में।
परन्तु संतोष न हुआ आज तक
सुंदरी, यही दशा मेरी भी
तुम्हारे प्रेमपाश में बांधकर
अत्यंत दीन हो गया हूँ मैं भी।
तुम्हारी माया से मोहित होकर
भूल गया मैं अपने आप को
पृथ्वी के सब धान्य,सुवर्ण, स्त्रियां
संतुष्ट न कर सकें पुरुष के मन को।
भोगवासना कभी शांत न हो
निरंतर भोगने से विषयों को
बल्कि वो प्रबल हो जातीं
जैसे आग भड़कती, घी डालो तो।
दुखों का उद्गम स्थान है
तृष्णा जो ये है विषयों की
शरीर वृद्ध हो जाता परन्तु
तृष्णा नित्य नवीन हो जाती।
कल्याण चाहते हैं जो अपना
शीघ्र से शीघ्र ही उन्हें
इस तृष्णा या भोगवासना का
त्याग है कर देना चाहिए।
बड़ी बलवान हैं इन्द्रियां ये
बड़े बड़े विद्वानों को भी
विचलित ये है कर देती
भोगवासना या तृष्णा यही।
हजार वर्ष मेरे पूरे हो गए
सेवन करते हुए विषयों का
क्षण प्रतिक्षण उन भोगों की
बढ़ती जा रही फिर भी वासना।
इसलिए तृष्णा को त्याग अब
अंतकरण को मैं अपने
परमात्मा के प्रति समर्पित कर
विचरण करूं अब मैं वन में।
भोग ये लोक परलोक के
असत हैं दोनों के ही ये
यह समझकर उनका चिंतन
या भोग नहीं करना चाहिए।
जन्म मृत्युमय संसार की प्राप्ति
होती चिंतन करने से उनके
और आत्मनाश हो जाता है
उन सब भोगों के भोग से।
जो इन के रहस्य को जानता
इनसे अलग रहे वो आत्मज्ञानी
इस प्रकार कह देवयानी को
ययाति ने पुरु को जवानी लौटा दी।
अपना बुढ़ापा वापिस ले लिया
राज्य बाँट दिया सभी पुत्रों को
बड़े पुत्रों को उसके आधीन कर
राज्य का भार सौंपा पुरु को।
एक क्षण में सभी कुछ छोड़ दिया
आसक्तिओं से मुक्ति पा ली
और वासुदेव में मिलकर
भगवती गति प्राप्त की।
देवयानी ने भी सब कुछ त्याग दिया
शरीर भी त्याग दिया उन्होंने
भगवान् को प्राप्त कर लिया
लगाकर मन को भगवान् कृष्ण में।