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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१५७; मोहिनी रूप में भगवान् के द्वारा अमृत बांटा जाना

श्रीमद्भागवत -१५७; मोहिनी रूप में भगवान् के द्वारा अमृत बांटा जाना

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कलश छीन रहे एक दुसरे से 

असुर आपस में सद्भाव छोड़कर 

इतने में उन्होंने देखा कि 

एक सुंदर स्त्री आ रही उनकी और।


आपस की लाग डांट भूलकर  

वो सब उसके पास दौड़ गए 

और उन लोगों ने तब 

काममोहित हो पूछा उससे।


कमलनयनी ! तुम कौन हो 

और कहाँ से आ रही हो 

सुंदरी, तुम किसकी कन्या हो 

और क्या करना चाहती हो।


एक ही जाती के हैं सब 

वैसे तो हम लोग फिर भी 

एक ही वस्तु को चाह रहे 

झगड़ा मिटादो हमारा तुम अभी।


कश्यप जी के पुत्र हम सभी 

इसीलिए सगे भाई हैं 

अमृत के लिए हम लोगों ने 

बड़ा पुरुषार्थ किया है।


न्याय अनुसार निष्पक्ष भाव से 

तुम इसे हममें बाँट दो 

जिससे कि फिर हम लोगों में 

किसी प्रकार का झगड़ा न हो।


असुरों ने जब ऐसे प्रार्थना की 

तब तिरछी चितवन से उन्हें देखते 

स्त्री वेश धारण किये हुए 

भगवान् ने हंसकर कहा उन्हें।


आप लोग कश्यप के पुत्र 

और मैं हूँ एक कुलटा नारी 

मुझपर आप क्यों डाल रहे हो 

न्याय का भार ये भारी।


स्वेच्छाचारिणी स्त्रिओं का कभी 

विवेकी पुरुष विश्वास न करें 

दैत्यों को और भी विश्वास हो गया 

मोहिनी की परिणय भारी वाणी से।


उन लोगों ने तब हंसकर ही 

अमृत कलश दिया मोहिनी के हाथ में 

हाथ में लेकर कलश, कहा उन्हें 

मोहिनी ने मीठी वाणी में।


उचित,अनुचित जो कुछ भी मैं करूं 

तुम लोग स्वीकार करो यदि 

सभी लोग सहमत हों इसमें 

अमृत बाँटूंगी मैं तब ही।


मीठी बातें सुनकर मोहिनी की 

बारीकी नहीं समझी थी उनकी 

दैत्यों ने कह दिया''स्वीकार है''

मोहिनी की वो वास्तविकता जानें नहीं।


एक दिन का उपवास करके फिर 

सबने था वहां स्नान किया 

हविष्य से अग्नि में हवन किया 

ब्राह्मणों को यथायोग्य दान दिया।


कुशा आसनों पर बैठ गए सब 

मोहिनी तब सभा मंडप में आयीं 

मोहिनी के रूप में ऐसे लगें हरि 

जैसे लक्ष्मी जी की सखी कोई।


मुस्कान भरी चितवन से अपनी 

देवता, दैत्यों को देखा मोहिनी ने 

सुंदरता को देखकर उनकी 

सबके सब उनपर मोहित हो गए।


मोहिनीरूप में हरि ने विचार किया 

असुर तो जन्म से क्रूर स्वाभाव के 

बड़ा ही अन्याय होगा जो 

अमृत पिलाया जायेगा इन्हें।


इसलिए असुरों को उन्होंने 

भाग नहीं दिया अमृत में 

अलग अलग पंक्तिआं बना दीं 

देवता, असुरों की मोहिनी ने।


दोनों की कतार बांधकर 

बैठा दिया अपने अपने दल में 

अमृत का कलश लेकर फिर 

पास चली गयीं वो दैत्यों के।


हाव, भाव, कटाक्ष से मोहित कर उन्हें 

देवताओं के पास गयीं वो 

अमृत पिलाने लगीं उन सबको 

जिससे कि बुढ़ापे, मृत्यु का नाश हो।


पालन कर रहे प्रतिज्ञा का अपनी 

हे परीक्षित, थे असुर जो वहां 

स्नेह भी हो गया था उससे और समझते 

स्त्री से झगड़ने को अपनी निंदा।


इसलिए वो चुपचाप बैठे रहे 

अत्यंत प्रेम हो गया था मोहिनी से 

मोहिनी से कोई अप्रिय बात न कही 

सोचें की सम्बन्ध घटे न कहीं ये।


देवताओं को अमृत पिला रहे 

भगवान् जिस समय मोहिनी रूप में 

देवताओं का वेश बनाकर 

राहु आ बैठा उनके बीच में।


देवताओं के साथ साथ ही 

अमृत पी लिया उसने भी 

परन्तु तत्क्षण चद्रमाँ और सूर्य ने 

राहु की वहां पोल खोल दी।


अमृत पिलाते पिलाते ही भगवान् ने 

सिर काट दिया उसका चक्र से 

अमृत का संसर्ग न होने से 

उसका धड़ गिर गया नीचे।


परन्तु सिर अमर हो गया 

ग्रह बना दिया ब्रह्मा जी ने उसे 

वही राहु पूर्णिमा और अमावस्य को 

चन्द्रमाँ, सूर्य पर आक्रमण किया करे।


देवताओं को अमृत पिलाकर 

दैत्यों के सामने ही भगवान् ने 

मोहिनी रूप का त्याग कर दिया 

आ गए वास्तविक रूप में अपने।


परीक्षित, देखो दैत्यों और देवता 

एक ही समय और स्थान पर दोनों ने 

एक विचार से एक ही कर्म किया 

एक प्रयोजन और एक वास्तु के लिए।


परन्तु फल में बड़ा भेद हो गया 

अमृत प्राप्त किया देवताओं ने 

क्योंकि उन्होंने चरणकमलों की 

 रज का आश्रय लिया भगवन के।


और अमृत से वंचित रह गए 

परिश्रम करने पर भी असुर गण 

क्योंकि आश्रय न लिया उस रज का 

उससे विमुख होने के कारण।


शरीर एवं पुत्र आदि के लिए 

प्राण, धन, कर्म, मन और वाणी से 

मनुष्य जो कुछ भी करता है 

व्यर्थ ही होता है वह।

क्योंकि उसके मूल में 

भेदबुद्धि बानी रहती जो 

परन्तु उन्ही प्राणादि के द्वारा 

किया जाता कुछ भगवान् के लिए तो।


सब सफल हो जाता वह 

क्योंकि रहित वो भेदभाव से 

सफल हो वो शरीर और पुत्र आदि

और समस्त संसार के लिए।


जैसे जड़ में पानी देने से 

वृक्ष का तना, पत्ते भी सींच जाते 

भगवान् के लिए कर्म करने से 

वैसे ही वे सबके लिए हो जाते।


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