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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

Classics

श्रीमद्भागवत ९३; भरत जी का मृग के मोह में फंसकर मृगयोनि में जन्म लेना

श्रीमद्भागवत ९३; भरत जी का मृग के मोह में फंसकर मृगयोनि में जन्म लेना

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शुकदेव जी कहें एक दिन भरत जी 

गण्डकी नदी में स्नान कर 

नदी की धारा के पास बैठे थे 

तीन मुहूर्त रहे वहां पर। 


उसी समय एक हरिणी वहां आई 

प्यास से वो व्याकुल बड़ी थी 

जल पीने के लिए अकेली ही 

उस नदी के तीर ख़ड़ी थी। 


जल पी ही रही थी वो वहां 

दहाड़ सुनाई दी एक सिंह की 

डर के मारे नदी पार करने को 

छलांग लगा दी एकाएक ही। 


वो हरिणी गर्भवती थी 

उछलते समय और भय के कारण से 

योनिद्वार से नदी में गिर गया 

हटकर गर्भ अपने स्थान से। 


झुंड से बिछुड़ जाने के कारण और 

गर्भ गिर जाने से पीड़ित हुई 

वो हरिणी एक गुफा में जाकर 

उस पीड़ा से ही मर गयी। 


राजर्षि भरत ने देखा 

बिछुड़ कर अपने बंधुओं से 

बेचारा हरिण का बच्चा 

बह रहा नदी के प्रवाह में। 


उनको उसपर बड़ी दया आई 

ले आए उसे अपने आश्रम में 

ममता भरत जी की बढ़ने लगी 

उस मातृहीन मृगछोने में। 


नित्य प्रबंध करने लगे वो 

खाने पीने का उस बच्चे के 

व्याघ्र से बचाने, लाड लड़ाने 

आदि की चिंता करने लगे। 


कुछ ही दिनों में यम नियम सब 

एक एक कर छूटने लगे थे 

भगवत्पूजा आदि आवश्यक कृत 

सभी छूट गए थे अंत में। 


वो ऐसा थे सोचने लगते 

इस बेचारे दीन मृगछोने को 

काल चक्र ने वेग से अपने 

पहुंचा दिया मेरी शरण में इसको। 


यह मुझे ही अपना माता, पिता

भाई - बंधु, साथी समझता 

मेरे सिवा किसी का पता न 

मुझपर ही सिर्फ विश्वास ये करता। 


ये मेरा शरणागत, मैं हूँ जानता 

दोष जो है उपेक्षा करने में 

इसलिए मुझे इस आश्रित का 

पालन पोषण अब करना चाहिए। 


इस प्रकार आसक्ति बढ़ गयी 

उनकी उस हरिण के बच्चे में 

बैठे, सोते, भोजन करते समय 

रहता था वो उनके चित में। 


पुष्प, फल, मूलादि लाने 

जब भी वो वन को जाते थे 

भेड़िओं और कुत्तों के भय से 

उसे भी साथ में ले जाते थे। 


कोमल घास देख रास्ते में 

अटक था जाता हरिणशावक जब 

दयावश और प्रेमपूर्वक ह्रदय से 

कंधे पर उसे उठा लेते तब। 


उन्हें बड़ा ही सुख मिलता था 

उस बच्चे को दुलार करने में 

नित्य नैमित्तिक कर्म करते भी 

उठकर देखते बीच बीच में। 


जब तक उसको देख न लें वो 

शांति नहीं मिलती थी चित को 

विरह में वो व्याकुल हो जाते थे 

अगर दिखाई न देता वो। 


चित उनका उद्दिग्न हो जाता 

शोक संतप्त वो हो जाते थे 

सोचने लगते थे वो कहीं 

मारा तो नहीं भेड़िए ने उसे।


कभी सोचते मृगशावक ये 

वापिस आएगा कि नहीं 

इस प्रकार की चिंता करके 

सदा व्याकुल रहेते भरत जी। 


अपने मृगशावक रूप में 

प्रतीत होने वाले प्रारब्ध कर्म से 

च्युत हो गए थे भरत जी 

भगवतधारण रूप कर्म से। 


वशीभूत होकर इन विघनों के 

योगसाधना से भ्रष्ट हो गए 

पालनपोषण में उसके लगे रहे 

आत्मस्वरूप को भूल वो गए। 


उसी समय सिर पर चढ़ आया 

अंत समय, उनका काल भी 

वो हरिण शावक भी बैठा तब 

उनके पास पुत्र समान ही। 


शोकातुर वो हो रहा था 

भरत देखें उसे इस स्थिति में 

चित उस में ही लगा हुआ 

प्राण छोड़ दिए इसी आसक्ति में। 


मृग शरीर मिला तदनन्तर उन्हें 

अंत काल की भावना से ही 

पूर्वजन्म की स्मृति नष्ट न हुई 

साधना उनकी पूर्ण थी क्योंकि। 


अत्यंत पश्चाताप करते हुए 

अपने आप से ये कहने लगे 

संयमशील मार्ग से पतित हुआ 

आसक्ति छोड़ मैं गया था वन में। 


वहां रहकर जिस चित को मुझको 

लगाना था हरि के मनन में 

मुझ अज्ञानी का वही मन 

आसक्त हो गया एक हरिण में। 


इस हरिण शिशु के पीछे ही 

अपने लक्ष्य से च्युत हो गया 

इस प्रकार मृग बने भरत में 

वैराग्य जागृत हो गया। 


उसे छिपाये रखकर उन्होंने 

अपनी माता को त्याग दिया 

शालग्राम जो भगवान का क्षेत्र है 

वो तब चले गए वहां। 


पुल्सत्य और पुलह ऋषि के आश्रम पर 

रहकर काल की प्रतीक्षा करने लगे 

भगवान भजन करते थे, उनको 

किसी भी आकर्षण से भय लगे। 


अकेले रहकर, निर्वाह करें

सूखे पत्ते, घास और झाडिओं से 

शरीर छोड़ दिया डुबोकर आधा 

अपने को, गण्डकी के जल में। 


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