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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत -१२१; बृहस्पति द्वारा देवताओं का त्याग

श्रीमद्भागवत -१२१; बृहस्पति द्वारा देवताओं का त्याग

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राजा परीक्षित ने पूछा भगवन

किस कारण त्याग किय था

देवाचार्य बृहस्पति जी ने

अपने प्रिय शिष्य देवताओं का।


कौन सा अपराध कर दिया

देवताओं ने गुरुदेव का

आप कृपा कर मुझे बतलाइये

किस्सा ये गुरु शिष्यों का।


शुकदेव जी कहें हे राजन

ऐश्वर्य पाकर त्रिलोकि का

देवताओं के राजा इंद्र को

अपने पद का घमंड हो गया।


धर्ममर्यादा और सदाचार का

वे उलंघन थे करने लगे

एक दिन की बात है जब

बैठे थे वो भरी सभा में।


पत्नी सूचि भी साथ थी उनके

बैठे थे वो सिंहासन पर

उपस्थित थे उनकी सेवा में

आठ वसु, उनचास मरुदगण।


ग्यारह रूद्र, आदित्य, ऋभुगण

वहां विशवेदेव साध्यगण भी

दोनों अश्वनीकुमार भी वहां

कर रहे सेवा थी उनकी।


सिद्ध, चारण, गन्धर्व, विद्याधर

ब्रह्मवादी मुनिगन, अप्सराएं भी

किन्नर, पक्षी और नाग सब उनकी

कर रहे सेवा और स्तुति।


उनकी कीर्ति का गान हो रहा

सब और ललित स्वर में

उसी समय बृहस्पति जी आये

आचार्य जो हैं समस्त देवताओं के।


इंद्र ने था देख लिया उन्हें

परन्तु फिर भी खड़े न हुए

गुरु का कोई सत्कार न किया

आसान से भी नहीं हिले डुले।


देखा एश्वर्यमद का दोष है

त्रिकालदर्शी बृहस्पति जी ने

झटपट अपने घर चले गए

निकलकर चुपचाप वहां से।


उसी समय इंद्र को चेत हुआ

अवहेलना की है गुरुदेव की

भरी सभा में ही करने लगे

निंदा अपनी वो स्वयं ही।


कहने लगे मूर्खतावश मैंने

गुरुदेव का तिरस्कार किया है

सचनुच मेरा ये कर्म तो

बहुत ही निंदनीय है।


चरणों में पड़कर उन्हें मनाऊं

ये थे वो सोच ही रहे

उसी समय बृहस्पति जी घर से

निकलकर अन्तर्धान हो गए।


इंद्र ने उनको बहुत था ढूंढा

परन्तु उनका पता न चला

गुरु के बिना सुरक्षित न समझकर

उपाय सोचें स्वर्ग की रक्षा का।


इंद्र-बृहस्पति की अनबन का

दैत्यों को भी पता चल गया

शुक्राचार्य के आदेश पर उन्होंने 

देवताओं पर धावा बोल दिया।


देवताओं को वाणों से मारें वो 

इंद्र और बाकि देव तब

ब्रह्मा जी की शरण में गए

धीरज बंधाया ब्रह्मा ने उन्हें तब।


देवताओं से कहने लगे ब्रह्मा

बड़े खेद की बात है ये

बहुत बुरा काम किया तुमने

अंधे होकर ऐश्वर्य मद में।


एक बेहद ब्रह्मज्ञानी और संयमी

ब्राह्मण का तिरस्कार किया तुमने

नीचा देखना पड़ा उसी के फल से 

उन निर्बल शत्रुओं के सामने।


देखो, तुम्हारे शत्रु भी पहले

अत्यंत निर्बल हो गए थे

अपने गुरुदेव शुक्राचार्य जी

का तिरस्कार करने से।


परन्तु अब भक्तिभाव से

उनकी आराधना करके वे

संपन्न फिर से हो गए हैं

धन, जन से और बल से।


मुझे तो ऐसा मालूम होता

शुक्राचार्य के दैत्य लोग ये

कुछ दिनों में कहीं ये मेरा

ब्रह्मलोक ही न छीन लें।


पूरी पूरी शिक्षा दी इनको

भृगुवंशिओं ने अर्थशास्त्र की

जो कुछ हैं ये करना चाहते

मिल पता तुम्हें उसका भेद नहीं।


सलाह गुप्त होती है उनकी

ऐसी स्थिति में जीत सकते वो

तपोबल से शुक्राचार्य के

स्वर्ग तो क्या, किसी भी लोक को।


त्वष्टा पुत्र विशवरूप के

पास जाओ तुम लोग शीघ्र ही

ब्राह्मण वो तपस्वी और संयमी हैं

सेवा करो जाकर तुम उनकी।


अगर तुम क्षमा कर सकोगे

उनके असुरों के प्रति प्रेम को

और उनका सम्मान करोगे

तुम्हारा काम बना देंगे वो।


शुकदेव जी कहें, हे परीक्षित

ये सुन ब्रह्मा जी के मुख से

चिंता दूर हुई देवताओं की

पास गए वो विशवरूप के।


जाकर बोले, तुम्हारा कल्याण हो

अत्तिथी रूप में आये हैं हम

एक तरह से तुम्हारे पितर हैं

अभिलाषा हमारी करो तुम पूर्ण।


हे वत्स, मूर्ती होते है

आचार्य वेद की, पिता ब्रह्मा की

भाई इंद्र की मूर्ती होता

और माता साक्षात् पृथ्वी की।


इसी प्रकार से बहन दया की

अतिथि धर्म की, अभ्यागत अग्नि की

और जगत के सब प्राणी

मूर्ती होते अपनी आत्मा की।


पुत्र, हम तुम्हारे पितर हैं

शत्रुओं ने लील लिया है हमें इस समय

पराजय, दुःख तुम टाल दो

हमारा ये अपने तपोबल से। 


ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण हो तुम अत :

जन्म से ही गुरु हो हमारे

शत्रृओँ पर विजय प्राप्त करें

तुम्हे वर्ण कर आचार्य के रूप में।


शुकदेव जी कहें हे परीक्षित

प्रार्थना की जब देवताओं ने

विशवरूप ने प्रसन्न होकर फिर

इस प्रकार वचन कहे उन्हें।


कहें पुरोहिती का काम जो

ब्रह्मतेज को क्षीण करे ये

इसीलिए निंदा की इसकी

धर्मशील महात्माओं ने।


किन्तु आप स्वामी हैं मेरे और

प्रार्थना कर रहे लोकेश्वर होकर भी

सेवक होकर मेरा स्वार्थ तो

आपकी आज्ञाओं का पालन करना ही।


आप मुझसे जो कराना चाहते हो

वे निंदनीय है फिर भी मैं

इससे मुँह मोड़ नहीं सकता

इसलिए पूरा करूं इसे मैं।


शुकदेव जी कहें हे परीक्षित

विशवरूप बड़े तपस्वी थे

इसके बाद वो बड़ी लगन से

देवताओं की पुरोहिती करने लगे।


शुक्राचार्य ने जो नीति बल से

असुरों की संपत्ति सुरक्षित की थी

विशवरूप ने वैष्णवी विद्या से

उनसे छीन इंद्र को दिला दी।


जिस विद्या से सुरक्षित होकर

असुरों को जीता था इंद्र ने

उस विद्या का उपदेश भी

उनको दिया था विशवरूप ने।



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