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Ajay Singla

Classics

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Ajay Singla

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श्रीमद्भागवत - २२१ ;इन्द्रयज्ञ निवारण

श्रीमद्भागवत - २२१ ;इन्द्रयज्ञ निवारण

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परीक्षित, वृन्दावन में रहकर 

कृष्ण, बलराम ने अनेकों लीलाएं कीं 

एक दिन देखा उन्होंने, गोप सब 

तैयारी कर रहे इंद्र यज्ञ की।


नंदबाबा और बड़े बुड्ढे गोपों से 

उन्होंने तब था पूछा ये 

पिता जी ये क्या उत्सव है 

और कर रहे किस उदेश्य से।


नंदबाबा ने कहा, कि बेटा 

भगवान् इंद्र स्वामी मेघों के 

समस्त प्राणियों को जीवन देते 

अमृत समान जल बरसाते वे।


यज्ञों द्वारा उनकी पूजा करें 

हमें फल देते इंद्र ही 

खेती आदि प्रयत्नों का और 

हमारी कुल परम्परा भी यही।


जो मनुष्य काम, लोभ, भय से 

या द्वेषवश धर्म को ऐसे 

छोड़ देता है, उसका कभी 

मंगल नहीं होता संसार में।


शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित 

नंदबाबा ने जब कहा ये उनसे 

बात सुनकर श्री कृष्ण ने 

इंद्र को क्रोध दिलाने के लिए।


कहा पिता जी, कर्म के अनुसार ही 

प्राणी पैदा होता, मर जाता 

कर्मों के अनुसार ही उसे 

सुख, दुःख, मंगल प्राप्त होता।


जब कर्मों का फल भोग रहे सभी 

आवश्य्कता क्या है इंद्र की 

पूर्व संस्कार से प्राप्त होने वाले 

कर्म फल को वे बदल सकते नहीं।


तब इनसे हमें क्या प्रयोजन 

मनुष्य आधीन, पूर्व संस्कारों के 

अपने कर्मों के अनुसार ही 

उत्तम और अधम शरीर मिले।


कर्म ही गुरु है, कर्म ही ईश्वर 

इसलिए मनुष्य को चाहिए 

अपने कर्म और आश्रम के अनुसार ही 

इस कर्म का ही आदर करे।


आजीविका सुगमता से है चलती 

जिसके द्वारा मनुष्य की, वो 

उसके इष्टदेव होते हैं 

छोड़ना नहीं चाहिए उनको।


उस देवता को छोड़ दूसरे देवता की 

उपासना करते हैं जीव जो 

उन्हें कभी सुख नहीं मिलता 

पूजो तुम अपने इष्टदेव को।


ब्राह्मण वेदों के अध्यापन से 

क्षत्रिय पृथ्वी पालन से 

वैश्य वार्ता वृति से और 

शूद्र इन तीनों की सेवा से।


अपना जीवन निर्वाह करे वो 

वैश्यों की वार्ता वृति चार प्रकार की 

कृषि, वाणिज्य, गोरक्षा और 

व्याज लेना ये है होती।


हम लोग इन चारों में से 

गोपालन करते आये सदा से 

संसार की स्थिति, उत्पत्ति और अंत का 

कारण सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण ये।


रजोगुण से उत्पन्न होता है 

सम्पूर्ण जगत स्त्री पुरुष के संयोग से 

उसी रजोगुण की प्रेरणा से 

मेघगण जल हैं बरसाते।


उसी से अन्न उगे और उसी से 

सब जीवों की जीविका चलती 

इंद्र का इससे क्या लेना देना 

वो इसमें तो कुछ करते नहीं।


पिता जी, सदा से वनवासी हम 

हमारे घर हैं, वन और पहाड़ ही 

इसलिए गौओं, ब्राह्मणों, गिरिराज का 

यजन करने की तैयारी करें सभी।


इन्द्रयज्ञ के लिए जो सामग्री 

इकट्ठी की गयी है उसीसे 

इस यज्ञ का अनुष्ठान करें हम 

उचित दक्षिणा ब्राह्मणों को दें।


गिरिराज का भोग लगाया जाये 

गोवर्धन की प्रदक्षिणा की जाये 

मेरी तो ऐसी ही सम्मत्ति है 

रुचे सबको तो ऐसा कीजिये।


ऐसा यज्ञ गौ, ब्राह्मणों को 

और श्री गिरिराज को भी 

बहुत ही प्रिय होगा और 

बहुत प्रिय है ये मुझे भी।


श्री शुकदेव जी कहते हैं, परीक्षित 

कालतमा भगवान् की इच्छा थी ये 

कि घमंड जो है इंद्र का 

इससे चूर चूर हो जाये।


नंदबाबा आदि ने ये सुनकर 

कृष्ण की बात स्वीकार कर ली 

यज्ञ प्रारम्भ किया उन्होंने 

गिरिराज की प्रदक्षिणा की।


ब्राह्मणों को सुंदर भेटें दीं 

गौओं को हरी घास खिलाई 

गोपियां कृष्ण की लीलाओं का गान कर

गिरिराज की प्रक्रिमा करने लगीं।


गोपों को विश्वास दिलाने के लिए 

विशाल शरीर एक धारण करके 

श्री कृष्ण गिरिराज के ऊपर 

‘मैं गिरिराज हूँ‘, कहकर प्रकट हुए।


यज्ञ की सामग्री आरोगने लगे 

उस स्वरुप को स्वयं ही प्रणाम किया 

‘देखो कैसा आश्चर्य है‘

व्रजवासिओं से ऐसा था कहा।


कहें, गिरिराज ने साक्षात प्रकट हो 

बड़ी कृपा की हमपर इन्होने 

जो इनका निरादर करते हैं 

उसे ये नष्ट कर देते।


अपने और गौओं के कल्याण को 

हम गिरिराज को नमस्कार करें 

गिरिराज का विधिपूर्वक पूजन कर सभी 

कृष्ण के साथ लौट आये व्रज में। 


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