पथ और पथिक
पथ और पथिक
तू जिस राह से हो कर गुजरे
वो राह किसी तीर्थ से कम नहीं।
ये राह फूलो सा महक रहा है
लगता है इस राह पे उसके कदम पड़े हैं।
कभी तो तू वापस आयेगा
यही सोचकर मैं
उन्ही राहों को पथराई निग़ाहों से
टकटकी लगाये देख रही
जिस पर होकर तू लौट गया..!
जरूरतें
जाने कितनो को पथिक बना देती हैं
चल पड़ते हैं सब एक ही राह
एक दूजे से अनभिज्ञ अजनबी बनकर
ता-उम्र जीवन की आपाधापी में
बस चले जा रहे है...!