मैंने हवा से प्रश्न किया
मैंने हवा से प्रश्न किया
खामोश पड़ी हवा से मैंने
एक दिन यह प्रश्न किया,
ए हवा क्या हुआ तुम्हें आज
बड़ा खामोश बैठी हो आज
कोई बात फिर हो गई क्या
रास्ते में घर मिला था क्या
घर के भीतर घर था क्या
हर घर के कमरे में
थोड़ा सुगंध था क्या
हर घर के कमरे की ज़मीन
मिट्टी की थी क्या, बोलो ना तुम ?
जिस घर को तुम खोज रही थी
आज तुम्हें मिला था क्या !
जिसमें घुल कर तुम मदहोश हो गई
देखो न तुम कितना खामोश हो गई
आज अचानक क्या हो गया
जिससे तुम्हारा अचानक से मन बदल गया
अब ऐसे खामोश न बैठो,
कुछ तो बोलो ना तुम
अरे ! कुछ तो मुंह खोलो तुम
खामोश पड़ी हवा से मैंने,
एक दिन यह प्रश्न किया।
मेरी बातों को सुनकर इतना बोली वह,
तुम्हारा घर कितना खूबसूरत हैं
यहां हर एक पंथ को सब हक हैं
जो चाहे वे सब बोलें, जो चाहे वे सब करें
अभिव्यक्ति की पूर्ण आजादी हैं यहाँ
मन मुताबिक जीने को सभी स्वतंत्र हैं
तुम सभी का जीवन कितना स्वाभिमानी हैं
मैं हंसकर तुम्हारे पास से गुज़र जाती थी
अनजाने में ही सही पर अपने ही
सपने को छोड़ जाती थी !
लेकिन, दुःख मुझे इस बात की हुई हैं
तुम्हारे घर में रहने वाले तुम्हारे अपने
ना जाने भला क्यों अपने ही घर में,
अपनी अभिव्यक्ति की आजादी का
रोजाना दुरुपयोग किया करते हैं !
उसके इतना कहने पर,
मैं उससे बस इतना ही बोला,
अब क्या इरादा है तुम्हारा,
बोलो तुम ?
मेरा घर ही क्या अब,
तुम्हारा ठिकाना है !
खामोश पड़ी हवा से मैंने,
एक दिन यह प्रश्न किया।