उसे भी जलना होगा
उसे भी जलना होगा


उस लम्हें की पैदाइश है ये दर्द
जिस लम्हें में लिखी थी उसने
मेरी हथेली पर गज़ल
जिसे गुनगुनाने की इज़ाज़त नहीं
दिल को
काशी की गलियों में जो बहता है
निनाद महाकाल का
वो समुन्दर था हूबहू एसा इश्क का
दीया जला गया जिसकी लौ में
चाहत का तेल खूटता ही नहीं।
फैल गई है रात आँसूं के मोती पीती
आदत उसकी मार गई
सिहर उठे जज़बात की धूनी
जब चपला यादों की चैन लूटे
कहाँ ढूँढे गीले सौरभ को
जब रिश्ते के सेतु ही सारे टूटे।
याद भले ना आऊँगी
मुझे भूलना कसौटी होगी उसकी
मेरी दरगाह की धूप बत्ती बनकर
उसको भी संग मेरे जलना तो होगा।