उम्मीद की छत
उम्मीद की छत
एक छत उमीद की मेरी !
जिसपर मेरा संदेश लेकर रोज एक प्रेम की संदेशवाहिनी पंछी जाती !
मगर पहरे थे छत पे इतने कि वह रोज खत बिन दिये ही वापस लौट आ जाती ।
वह पंछी मेरे महबूब को पहचान तो जाती अच्छी तरह से ।
मगर वह यही संकोच में पड़ जाती की संदेश पहुँचाएँ तो पहुँचाएँ किस तरह से ?
कभी देने को कोशिश भी करती तो वो ले न पाती !
कभी लेने की कोशिश भी करती तो प्रेमिन पंछी पत्र दे न पाती !
अफसोस! हाय किसको अब मैं कोसूं?
जब किस्मत साथ न हो तो क्या करिश्माई जादू देखूं ?
सही पते पर पहुँचकर भी सही पते पर पहुँच न रहा !
मेरी उम्मीद की छत वही बची थी आखिरी मेरी !
जिस विरह में मैं तड़प रहा क्या तड़प रही होगी विरहनी मेरी !
एक दिन उबकर पंछी ने लांघ दी अपनी सीमाएँ ।
मुझे व्याकुल देख वह थी खत पहुँचाने को अति - आतुर!
सबके सामने ही उसने अपना पैगाम दे दी !
प्रेम का परिणय - पत्र पढ़ दी उसने वह पंछी बहादुर।
बेचारी अभागिन पंछी को दरिंदों ने पंख काट दिये !
अब वह कैसे मेरी प्रेयसी का खत लेकर आये ??
दरिंदें दो दिलवाले को कैसे जुड़ते देख सकते थे ?
कत्ल कर दिया उसने पंछी का नहीं !
कत्ल कर दिया मेरी दिल को दिल से जोड़ने वाले तार का ।
बैठा नेपथ्य में मैं दिन- रात क्षितिज की ओर निहारता ।
काश ! वो लौट आती पंछी ! काश ! वो लौट आती !
अपने साथ वो मेरी धड़कन के स्पंदन को भी ला पाती ।
वही अनंत में बैठकर देखता रहता उस अनजान उम्मीद की छत की ओर !
