उलझे हुए लम्हे
उलझे हुए लम्हे
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उमर कब गुजर गई, सफ़र में ऐ ज़िंदगी के मेरा
खुद के वजूद से कोई वास्ता न रहा
आधी अधूरी जितनी भी बातें थी कल की
उन पलों में लौट जाने का, कोई रास्ता न रहा
अब, बस यादें ही तो है, इन ज़ख्मों को सहलाने को
और कुछ उलझे हुए से लम्हे है, बेचैन दिल बहलाने को