इंसान और भूख
इंसान और भूख
इंसान को इंसान की भूख ने मारा,
हड्डियों के ढाँचों का शहर कर डाला।
हर तरफ एक ही चीख निकलती है
मौत ने नींद जो गहरी दे दी है,
कोई नहीं सुनता रुदन उसका
जो जिंदगी अपने वजूद के लिए कैदी है।
गिद्ध जैसे हड्डियों से मांस नोचते हैं,
वैसे कुछ इंसान यहाँ इंसान को जानवर तौलते हैं।
काल की यह भयानक रात
हर किसी पर अमावस सी गुजरती है,
छिपें हैं मासूम घरों की दीवारों में
पर शैतानों के लिए अमावस ही फलती है।
जरूरतों को जरूरतमंदों की मजबूरी समझ
दुकानें सजाकर जो खुले आम बोली लगाते हैं,
वही कल धर्मात्मा की पोशाक पहन
इंसान को इंसानियत का पाठ पढ़ाते हैं।
यह मिटती नहीं यह भूख ही ऐसी है
इंसान की फितरत पैसों पल पल बदलती है,
यह दौर सबको एक साथ मिलकर लड़ने का
पर यह भूख ऐसे हालतों में और बढ़ती है।