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Kavita Verma

Drama

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Kavita Verma

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यादें नहीं मुरझातीं

यादें नहीं मुरझातीं

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तुम्हारी यादों को जो संजो रखीं थीं 

दिल में बंद किसी कोने में 

उन्हें महकाने के लिए 

एक पौधा लगाया था 

सींच सींच कर यादों को 

हरा भरा उसे बनाया था 


खिल उठे थे जब फूल 

तुम भी उन संग मुस्काई थीं 

उस दिन दादी माँ 

तुम याद बहुत आई थीं। 


हर बरस एक उम्र बढ़ती 

यादें भी परवान चढ़तीं 

उसकी ठंडी छाँव जैसे 

कठिन दिनों के ताप हरती। 


कुछ दिनों से देखा मैंने 

फूलों को मुरझाया सा 

हरदम हंसने वाली 

दादी को कुम्हलाया सा 

हटा छाल उस दरख़्त की 

यादों को लहूलुहान किया 

किसी ने साजिश रच जैसे 

पेड़ का त्राण किया 


हरियाली यादें जैसे पतझड़ सी झड़ गई 

अंतिम साँसे गिनती दादी 

उसमें जैसे उभर गई 

लाख जतन किये फिर भी 

उसमें न हरियाली आई 

जैसे हर इक कोशिश तुम्हें न बचा पाई 

सूखे फूल पत्ती ने वैसे ही उसे छोड़ा था 

जैसे सांसों ने दादी तुमसे मुख मोड़ा था 

धीरे धीरे जैसे जैसे मेरी हर आस गई 

आज लगा दादी तुम सचमुच सिधार गई। 



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