तुम्हारे_शहर_में
तुम्हारे_शहर_में
एक बारगी जो मैं आया,
तुम्हारे शहर में.....
घुल सा गया इसकी आबोहवा में।
वो चाँदनी सी रात में महकती इसकी राहें
ज्यों मोगरे की बेल हों फैलाये अपनी बाँहें।
वो संकरी सी गलियों के जुड़े हुए छज्जे
ज्यों बाजरे के सिट्टे एक दूजे से हो लिपटे।
तहज़ीब गंगा जमुनी अलग ही इसकी दिखती है
के मसरूफ़ियत में भी नवाबियत झलकती है।
अब कैसे करूं अलहदा इसकी ख़ुशबू से खुद को
के हवा भी अब इधर से आती सी लगती मझ को।
कुछ रूबाइयों सी शामें अपने जिस्म पे लपेटे
और ठुमरी की मिठास लबों पर समेटे।
बेशक मैं लौट आया
पर कुछ कुछ रह गया.....
तुम्हारे शहर में..........।