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Mayank Kumar

Romance

4  

Mayank Kumar

Romance

तुम हो कर भी न हो

तुम हो कर भी न हो

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शाम सवेरे मैंने ख़्वाब को सजाया था

जब भी कोई आंधी आई मैंने उसको


मिट जाने से हर एक पल बचाया था

पर साज़िश कम नहीं थी डगर में मेरी


जिस ख़्वाब को सीने से लगाकर जिया

उस ख़्वाब ने जिंदगी को खूब ग़म दिया


एहसान फरामोश निकली मेरी ख़्वाब

जिंदगी में कई जिंदगी की हो गई वह साँस


अब मैं बोलूं भी तो क्या अपने उस ख़्वाब से 

आख़िर मदिरा से शिकायत किया नहीं जाता


सबकी मधु को अपना कहा नहीं जाता

आखिर ख़्वाब थी वह हक़ीक़त तो नहीं


क्या रोना, क्या चिल्लाना जो नीर है सबकी

ख़्वाब ही तो हैं सबकी, हक़ीक़त तो नहीं


माना रास्ता हैं सबकी, वह मंज़िल तो नहीं

दरिया हैं प्यासे की पर वह गंगा तो नहीं।


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