मरूस्थल सा मेरा ह्रदय
मरूस्थल सा मेरा ह्रदय
मरूस्थल सा मेरा हृदय , सहमा, एकांकी रहता है,
वर्षा को आ जाने को चिट्ठियों में कहता है।
अनगिनत सालों से, प्रतीक्षा में उसकी, जीवन बीत रहा है,
मेरा एकाकीपन उसके आने की आशा से जीत रहा है।
भय है, कहीं यह वचन भी टूट न जाए,
मेरे हृदय से उसके आने की आस छूट न जाए।
मेरी संदेह करने की आदत, उसकी बोली हर बात झुठलाती है,
और मरूस्थल से मेरे हृदय के सामने मृग-तृष्णा बन वर्षा इठलाती है।
धोखों से घिरे मेरे हृदय को श्वास भी धोखा लगती है,
दर्द की जलन में घाँस की भी जड़ें सुलगती है।
कैसे बदल दूँ वनों में, इन सुलगती घाँस को?
मैं, कण्ठ से नहीं खोल पा रही एकांकीपन की फाँस को।
ठण्डी पुरवाई की आस लगाए बैठूँ, तो आँधी सहनी पड़ती है,
अपने मन की बात मरूस्थल में रेत के कणों से कहनी पड़ती है।
वो नहीं आता तो उसके पदचिन्ह ही आ जाएँ,
मरूस्थल सा मेरा ह्रदय कहे, वर्षा नहीं तो उसके बादल होकर छिन्न-भिन्न ही आ जाएँ।
दुःखों की इस रेतीली बाढ़ में डूबती मैं, किसीके पदचाप सुन रही हूँ,
उस आवाज़ से ही अगणित कल्पनाएँ बुन रही हूँ।
कहीं ये मृग-तृष्णा तो नहीं, सोच-सोच थोड़ा डर रही हूँ,
मेघों के गरजने की ध्वनि सुन कुछ सँवर रही हूँ।
सहसा वो पास आता है, मेरा हाथ पकड़ अपनी तरफ खींचता है,
अपने अश्रुओं से मेरे हृदय के मरुस्थल को सींचता है।
हो गई पूरी, वर्षा होने की हर एक आस,
बुझ गई मरूस्थल से मेरे हृदय की प्यास।

